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________________ आयारदसा ११६ यदि आचार्यादि आज्ञा न दें तो किसी एक विकृति का आहार करना नहीं कल्पता है। प्र०-है भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहा? उ.-आचार्यादि आने वाली विघ्न बाधाओं को जानते हैं । सूत्र ६३ वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अण्णार तेइच्छियं आउट्टित्तए । नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता १ आयरियं वा, २ उवज्झायं वा, ३ थेरं वा, ४ पवत्तयं वा, ५ गणि वा, ६ गणहरं वा, ७ गणावच्छेययं वा, जं वा पुरओ काउं विहरइ। कप्पइ से आपुच्छित्ता १ आयरियं वा, २ उवज्झायं वा, ३ थेरं वा, ४ पवत्तयं वा, ५ गणि वा, ६ गणहरं वा, ७ गणावच्छेययं वा, जं वा पुरओ काउं विहरइ-इच्छामि गं भंते ! तुम्मेहि अन्भणुण्णाए समाणे अण्णार तेइच्छियं आउट्टित्तए ? तं एवइयं वा, एवइखुत्तो वा? ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णार तेइच्छियं आउट्टित्तएँ । ते य से नो वियरज्जा; एवं से नो कप्पइ अण्णारं तेइच्छियं आउट्टित्तए। से कि माह भंते ! आयरिया पच्चवायं जाणंति । ८/६३॥ वर्षावास रहा हुआ भिक्षु किसी एक रोग की चिकित्सा कराना चाहे तो आचार्य यावत् गणावच्छेदक इनमें से जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछे बिना चिकित्सा कराना कल्पता नहीं है । किन्तु आचार्य यावत् गणावच्छेदक इनमें से जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर ही चिकित्सा कराना कल्पता है। आज्ञा लेने के लिए भिक्षु इस प्रकार कहे । हे भगवन् ! आपकी आज्ञा मिलने पर अमुक रोग की चिकित्सा कराना चाहता हूँ। वह भी अमुक प्रकार की और इतनी बार। ,
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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