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________________ छेदसुताणि सूत्र २०-२४ एवं उवन्झाय-यावच्चेण वा ॥२०॥ एवं तवस्सि-वेयावच्चेण वा ॥२१॥ एवं गिलाण-वेयावच्चेण वा ॥२२॥ एवं खुड्डएण वा, खुड्डियाए वा ॥२३॥ एवं अवंजण-जायएण वा ॥२४॥ इसी प्रकार उपाध्याय, तपस्वी , ग्लान, लघु वय के भिक्षु-भिक्षुणी और अव्यक्त यौवन वाले भिक्षु-भिक्षुणी की वैयावृत्य करने वाले को छोड़कर (अर्थात् उक्त आचार्यादिकी वैयावृत्य करने वाला भिक्षु गोचरी के लिये दो वार जा सकता है और दो वार आहार कर सकता है।) सूत्र २५ वासावासं पज्जोसवियस्स, चउत्यभत्तियस्स भिक्खुस्स एगं गोयरकालं... अयं एवइए विसेसे-जं से पाओ निक्खम्म पुवामेव वियडगं सुच्चा पिच्चा पडिग्गहगं संलिहिय, संपमज्जिय । से य संथरिज्जा-कप्पइ से तदिवसं तेणेव भत्त?णं पज्जोसवित्तए । से य नो संथरिज्जा-एवं से कप्पइ दुच्चं पि गाहावइकुलं भत्ताए वा, पाणाए वा, निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा 15/२५॥ वर्षावास रहे हुए चतुर्थभक्त (उपवास) करने वाले भिक्षु के लिए एक गोचर काल का विधान है। ___ यहाँ इतना विशेप है कि वह भिक्षु प्रातः प्रथम प्रहर में उपाश्रय से निकलकर अन्य भिक्षुओं से पहले प्रासुक शुद्ध निर्दोष माहार खा-पीकर तथा पात्र को प्रक्षालित एवं प्रमाणित कर रख दे। यदि एक बार किए हुए उस आहार से क्षुधा उपशान्त हो जाये तो उस दिन उसे उसी आहार पर निर्भर रहना कल्पता है। यदि क्षुधा उपशान्त न हो तो उसे गृहस्थों के घरों में भक्त पान के लिए दूसरी बार निष्क्रमण-प्रवेश करना भी कल्पता है । ८/२५
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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