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________________ छोड़ता है, वह ममतावाली वस्तु को छोड़ता है, जिसके लिए कोई ममतावाली वस्तु नहीं है, वह ही ऐसा ज्ञानी है, जिसके द्वारा अध्यात्म-पथ जाना गया है (46)। आन्तरिक रूपान्तरण के महत्त्व को समझाने के वाद आचारांग ने हमें साधना की दिशाएँ बताई हैं। ये दिशाएँ ही साधना के सूत्र हैं। (i) अज्ञानी मनुष्य का वाह्य जगत् से सम्पर्क उसमें आशाओं और इच्छाओं को जन्म देता है। मनुष्यों से वह अपनी आशाओं की पूर्ति चाहने लगता है और वस्तुओं की प्राप्ति के द्वारा वह इच्छाओं की तृप्ति चाहता है। इस तरह से मनुष्य प्राशाओं और इच्छाओं का पिण्ड बना रहता है। ये ही उसके मानसिक तनाव, अशान्ति और दुःख के कारण होते हैं (39)। इसलिए आचारांग का कथन है कि मनुष्य आशा और इच्छा को त्यागे (39) । (ii) जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, वह बहिर्मुखी ही बना रहता है, जिसके फल-स्वरूप उसके कर्म-बंधन नहीं हटते हैं और उसके विभाव-संयोग (राग-द्वेषात्मक भाव) नष्ट नहीं होते हैं (78)। अतः इन्द्रिय-विषय में अनासक्ति साधना के लिए आवश्यक है । यहीं से संयम की यात्रा प्रारम्भ होती है (53)। आचारांग का कथन है कि हे मनुष्य ! तू अनासक्त हो जा और अपने को नियन्त्रित कर (76) । जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी) लकड़ियों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार अनासक्त व्यक्ति राग-द्वैप को नष्ट कर देती है (76)। (iii) कषाएँ मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट कर देती हैं । कषायों का राजा मोह है । जो एक मोह को नष्ट कर देता है, वह बहुत कषायों को नष्ट कर देता है (69) । अहंकार मृदु सामाजिक सम्वन्धों तथा आत्म-विकास का शत्रु है। कहा है कि उत्थान का अहंकार होने पर मनुष्य मूढ वन जाता है (91)। जो क्रोध आदि कषायों को तथा अहंकार को नष्ट करके चलता है, xiv ] [ आचारांग
SR No.010767
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages199
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Grammar, & agam_related_other_literature
File Size5 MB
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