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________________ के लिए, क्रीड़ा के लिए तथा प्रेम के लिए नीरसता व्यक्त करता है (27) । अतः आचारांग का शिक्षण है कि ये प्रात्मीय-जन मनुप्य के सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं और वह भी उनके सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होता है (27) इस प्रकार मनुप्य बुढ़ापे को समझकर आध्यात्मिक प्रेरणा ग्रहण करे तथा संयम के लिए प्रयत्नशील बने। और वर्तमान मनुष्य-जीवन के संयोग को देखकर आसक्ति-रहित बनने का प्रयास करे (28)। प्राचारांग का कथन है कि हे मनुष्यों! आयु वीत रही है, यौवन भी वीत रहा है, अत: प्रमाद (आसक्ति) में मत फैसो (28)। और जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो, तव तक ही स्व-अस्तित्व के प्रति जागरूक होकर आध्यात्मिक विकास में लगो (30)। आचारांग सर्व-अनुभूत तथ्य को दोहराता है कि मृत्यु के लिए किसी भी क्षण न पाना नहीं है (36)। इसी बात को रखते हुए आचारांग फिर कहता है कि मनुष्य इस देह-संगम को देखे । यह देहसंगम छूटता अवश्य है। इसका तो स्वभाव ही नश्वर है। यह अध्र व है, अनित्य है और अशाश्वत है (85)। आचारांग उनके प्रति आश्चर्य प्रकट करता है जो मृत्यु के द्वारा पकड़े हुए होने पर भी संग्रह में आसक्त होते हैं (74)। मृत्यु की अनिवार्यता हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा का कारण बन सकती है। कुछ मनुप्य इससे प्रेरणा ग्रहण कर अनासक्ति की साधना में लग जाते हैं। धन-वैभव में मनुष्य सबसे अधिक आसक्त होता है । चूकि जीवन की सभी आवश्यकताएँ इसी से पूरी होती हैं, इसलिए मनुष्य इसका संग्रह करने के लिए सभी प्रकार के उचित-अनुचित कर्म में संलग्न हो जाता है । आचारांग आसक्त मनुष्य का ध्यान धन-वैभवं के नाश की ओर आकर्षित करते हुए कहता है कि कभी चोर धन xii ] [ प्राचारांग
SR No.010767
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1987
Total Pages199
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Grammar, & agam_related_other_literature
File Size5 MB
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