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________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । महा दुखद मरुभूमिमें, देख दूरसों नीर। - भोले मृग ही प्यासवश, दौरि सहैं वहु पीर ॥ चंचल लक्ष्मी वय चपल, देह रोगको गेह । तौ हू इहि संसारमें, स्वातमसों नहिं नेह ॥ [फिर पढ़ता है। अनुप्रेक्षा-बेटा! देखो, यह वैराग्य तुम्हारे पास आ गया । अब तुम्हें इसकी अच्छी तरहसे संभावना करना चाहिये । । मन-प्यारे पुत्र! आओ। वैराग्य-(समीप जाकर) हे देव! मै नमस्कार करता हूं। मन-(सिरपर हाथ रखकर ) बेटा! इतने दिनतक तुमने अपने पिताका स्मरण क्यों न किया 2 अच्छा किया, जो इस समयआ गये । एकबार आओ, मै तुम्हें छातीसे लगा लूं । (हृदयसे लेन गाकर) प्रिय सुपुत्र! आज तुम्हारा स्पर्श करनेहीसे मेरी दुखाग्नि 'शात हो गई। - वैराग्य-तात ! इस ससारमें शोक किसका और कैसा जहाँ बालकपन यौवनके द्वारा नष्ट हो जाता है, यौवन जराके द्वारा विदा माँग जाता है और जराको निरन्तर मरण घेरे रहता है। वहाँ प्राणी शोक क्यो करते है, समझमें नहीं आता । किसीने कहा है, राग खेमटा। बतलाओ हे बुधिवान, विधिसों कौन वली ॥ टेक ॥ अणिमादिक वर महिमामंडित, सुरपति विभवनिधान । ताको लंकापतिने मारयो, जानत सकल जहान॥ विधि०॥ १ देवजातिके विद्याधरोंके खामी इन्द्र विद्याधरको ।
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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