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________________ तृतीय अंक। भ्रमवश पुनि पुनि कर प्रयत्न क्यों, विफल मनोरथ होता यार ॥ समझ रहा है जिसे चपल मति! तू सुस्थिर-सुख-पारावार । बहुत समय सो नहीं रहेगा करत क्लेश क्यों वारंवार ।। चौबोला। आने में होती है चिंता, जानेमें भी फिर भारी। इससे साफ समझमें आता, धन आना ही दुखकारी । यों विचार कर ज्ञानवानजन, लोभविटप विच्छेद करें। जिससे जगमें सब अनर्थकर, विषमय फल फिर नहीं फरें। । इन वाणोके तीक्ष्ण प्रहारोंसे लोभ तत्काल ही धराशायी हो गया । और उसके साथ ही पैशून्य, परिग्रह, दंभ, असत्य, क्लेशादि योद्धा भी पराजित हो गये । 5 वाग्देवी-अच्छा हुआ! अच्छा हुआ!! मैत्री हे भगवती! पश्चात् जब देखा कि, क्षत्रयुद्धसे अब ..मेरी जीत नहीं हो सकती है, तब मोहने सवको अक्षत्र युद्धमें प्रवृत्त कर दिया । अर्थात् एक एकके साथ एक एक न लड़कर द्यूत, सुरा आदि सातों न्यसन और वौद्ध, श्वेताम्बर, नैयायिक, कपिल, मीमांसक आदि आगम सबके सब एक साथ प्रबोधकी १ धने प्राप्ते चिन्ता गतवति पुनः सैव नियतम् ततो पानिर्भद्रं न भवति यया दुःखमसकृत् । इति ज्ञात्वा छेद्यो विपुलमतिना लोभविटपी यतः सर्वेऽनर्था जगति न भवन्त्यर्तिकरणाः ।।
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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