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________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । मोह-उसे दरवारमें आने दो। अधर्म-जो आज्ञा। न्यायका प्रवेश न्याय-प्रबोध राजाने नमस्कार करके आपकी कुशलता पूछी है। __ मोह-हे न्याय ! "कुशलता पूछी है" तुम्हारा यह वाक्य हो। मुझे आनन्दित करता है । परन्तु साथ ही "प्रबोध राजाने पूछी है" यह वाणी मुझे व्यथित करती है। क्योंकि प्रवोध मेरे जीते जी इस लोकमें राज्यका अधिकारी नहीं हो सकता है। अतएव ऐसा व्यर्थ वचन मत कहो कि, "प्रबोध राजाने कुशलता पूछी है।" न्याय-महाराज! आपने यह ठीक कहा कि, "मेरे जीते जी प्रवोध राजा नहीं हो सकता।" इसे मैं भी स्वीकार करता हूं कि, "आपके जीते रहनेपर नहीं, किन्तु उनकी तलवारसे आपके देवगति प्राप्त होनेपर प्रबोध राजा हो सकेंगे।" मेरे ये सव वचन आप अच्छीतरहसे हृदयमें धारण कर लें, और उन्हें सत्य समझ लें। राग-द्वेष-(लाल लाल नेत्र करके) रे मूर्ख! ऐसे असंभव और असभ्य वचन क्यों बोलता है? क्या तुझे मरनेकी इच्छा है ? __ [सप्त व्यसन सुभटोंका मारनेके लिये उठना।] न __ मोह-अरे भाई! क्यों वेचारेपर क्रोध करते हो? इसे मत मारो । यह दीन पराया दूत बनकर आया है । क्या तुम नहीं जानते हो कि, "यद्यपि मतवाला श्याल सिहके सम्मुख आकर जोर जोरसे चिल्लाता है। परन्तु उससे सिंह विलकुल कुपित नहीं
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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