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________________ ५२ ज्ञानसूर्योदय नाटक 1 मेरे साथ द्रोह करें । ( योद्धाओंकी ओर तीक्ष्ण दृष्टिमे देसकर ) वीरगणो! क्या देखते हो? तयार हो जाओ। मैं युद्धके लिये सबद्ध हूं। विवेक-(हाथ जोड़कर ) महाराज ! शीघ्रता न कीजिये । पर हले एक राजदूत शत्रुके पास भेजना चाहिये । यदि उसका वचन वह न माने, तो लड़ाई शुरू कर देनी चाहिये । और यदि माना जावे, तो फिर युद्ध करनेसे लाभ ही क्या है ? प्रबोध-(कोधित होकर) जो मारने योग्य है, उसके पास दूत भेजना निरर्थक है। विवेक-महाराज! युद्ध राजनीतिपूर्वक ही संपादन करना चाहिये । अन्यथा आपके सिरपर भाईके मारनेका अपयश आवेगा। देखिये, श्रीरामचन्द्र रावणको मारना चाहते थे, तौभी उन्होंने पहले राजदूत भेजा था, और पीछे युद्ध किया था। अतएव जो नीतिके विचारमें चतुर है, उन्हें सज्जनोंकी शोभाके योग्य कार्य करनेका ही प्रारंभ करना चाहिये। प्रवोध-अच्छा, तो तुमने किस दूतके भेजनेका विचार किया है? विवेक-मेरी समझमें तो सम्पूर्ण मनुष्योंकी स्थितिके धारण करनेवाले जगत्मसिद्ध न्यायको ही दूत बनाकर भेजना चाहिये । प्रवोध-(दासीसे ) सत्यवति! न्यायको बुलाकर लाओ। सत्यवती-जो आज्ञा । । [सत्यवत्तीका जाना और न्यायके साथ लौटके आना] न्याय-महाराज! इस किंकरका स्मरण किस लिये हुआ? १ अर्थातू मुझे सरखती देवीकी शपय (कसम ) है। -
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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