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________________ द्वितीय अक। शान्ति-माता! यह नीच क्या कह रहा है कि, देहसों भन्न न आतम कोई ! क्या यह नहीं जानता है कि, शरीरसे हले और पीछे भी अमूर्तीक चैतन्य आत्मा रहता है। क्योंकि वह 'दकारणवत्व है। अर्थात् जिन पदार्थोंका अस्तित्व तो हो, परन्तु उनका कोई कारण नहीं हो, वे पदार्थ नित्य होते है । जैसे कि आकाश। यद्यपि आकाशका अस्तित्व है। इसलिये वह एक पदार्थ तो है, परन्तु उसकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं है, अतएव नित्य है। क्षमा-परन्तु ( इसके मतसे ) पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति ये पंचभूत पदार्थ जीवकी उत्पत्तिके कारण है । इसलेये बेटी! तेरा हेतु असिद्ध है।। शान्ति-नहीं, यह मेरा हेतु असिद्ध नहीं है । क्योंकि पंचभूत खयं अचैतन्य-जड़खरूप है। इसलिये वे चैतन्यके उत्पन्न करनेवाले नहीं हो सकते है । जैसे कि, क्रिया द्रव्यको उत्पन्न करजेवाली नहीं हो सकती । अभिप्राय यह है कि, विजातीय कारणसे - कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। द्रव्य और क्रिया विजातीय है। इसलिये क्रिया कार्यका उपादान कारण नहीं हो सकती है । .सी प्रकारसे पंचभूत जो कि अचैतन्य है, चैतन्यखरूप विजातीय आत्माके उपादान कारण नहीं हो सकते है। क्षमाअचेतनसे चैतन्यकी उत्पत्ति नही हो सकती है। तेरा यह हेतु भी व्यभिचारी है । क्योंकि गोवरसे विच्छुओंकी उत्पत्ति देखी जाती है। • ५१ सदकारणवनित्यमिति वचनात् । २/भैसेके गोवरमें गधेका मूत मिलाकर रखनेसे कुछ समयके पश्चात सम्मूईन) विच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। -
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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