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________________ १२ ज्ञानसूर्योदय नाटक । लोक्यविजयी वीर हूं। और प्रवोधादिके वश करनेके लिये तो एक स्त्री ही वस है । यह कौन नहीं जानता कि; तव लों ही विद्याव्यसन, धीरज अरु गुरु मान । जब लों वनितानयनविष, पैठ्यो नहिं हिय आन । रति-परन्तु आर्यपुत्र । उन्हें यम नियमादिकोंका भी तो वड़ा भारी वल है! काम-(हँसकर ) मेरे अतिशय प्यारे मित्र सप्तव्यसनोंके साम्हने उन वेचारोंका कितनासा वल है । मेरे मित्रोंका प्रभाव सुनो“द्यूतव्यसनसे युधिष्टर, माससे वक राजा, मद्यपानसे यदुवंशी, वेश्यासेवनसे चारुदत्त, शिकारसे राजा ब्रह्मदत्त, चोरीसे गिवभूति, परस्त्रीसेवनसे रावण, इस प्रकार संसारमें एक एक व्यसनके सेवनसे अनेक प्रतिष्ठित पुरुष नष्ट हो गये। फिर सबके युगपत् सेवनसे तो ऐसा कौन है, जो बचा रहेगा?" इससे हे प्रिये ! इस विषयमें तू कुछ खेद मत कर। - रति-मैने सुना है कि, राजाने आज कोई गुप्तमंत्रणा की है। क्या यह सच है? . काम-हां! मेरे साम्हने ही वह मंत्रणा की गई थी। रति—उसे क्या मैं नहीं जान सकती हूं? काम-सुनो, राजाने कहा था कि, प्रवोध आदि पुत्र ज्येष्ठ है, और वलवान है, इसलिये न्यायमार्गसे प्राप्त हुए राज्यके वे ही खामी है । परन्तु प्रिये! यह पृथ्वी वीरभोग्या है । जो वीर होगा, १ तावहरवो गण्यास्तावत्वाध्यायधीरज चेतः। यावन्न मनसि वनितादृष्टिविषं विशति पुरुषाणाम् ॥
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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