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________________ प्रथम अंक। कहांसे समागई है। मेरे संयम मित्रके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि आदि अनेक सहायक है । उनके आगे बेचारे कलिकालकी क्या चल सकती है? एक संयम मित्र ही ऐसा है कि, उसके होते हुए किसीके भी भयको स्थान नहीं मिलता है। और दूर क्यों जाती हो, मै क्या कुछ कम हूं? मेरा भी पुरुषार्थ तो सुन ले; चौबोला। विमलशील नहिं जरा मलिन भी, होने दिया कभी सपने । रावणकेद्वारा सीताने, कीचकद्वारा द्रोपदिने । ऐसे ही श्रीजयकुमारने, नमिनृप-पतिनीके छलसे । ब्रह्मचर्य अपना रक्खा सो, समझो सव मेरे बलसे ।। । मति-हे आर्यपुत्र! आपका कथन सत्य है । तथापि जिसके बहुतसे सहायक हों, उस शत्रुसे हमेशा शंकित ही रहना चाहिये । विवेक-अच्छा कहो, उसके कितने सहायक है? कामको 'शील मार गिरावेगा । क्रोधके लिये क्षमा बहुत है । संतोषके सम्मुख लोभकी दुर्गति होवेहीगी । और बेचारा दंभ-कपट' तो संतोपका नाम सुनकर ही छूमंतर हो जावेगा। - मति-परन्तु मुझे यह एक बड़ा भारी अचरज लगता है, नि, जब आप और मोहादिक एक ही पिताके सहोदर पुत्र है, तब -प्रकार शत्रुता क्यों ? ' विवेक-प्रिये! सुनो; वसन्ततिलका। प्रायः प्रसिद्ध गुणवान तथा विवेकी । भूम्यर्थ ही वनत हैं रिपु छोड़ नेकी ॥
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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