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________________ के मी-आत्माके वल्पमें लवलीन होकर भी कर्म योगसे भ्रष्ट हो जाता है । चन्द्रमा अपनी सामाविक सोलह कलालोंको पाकर मी इस लोनको नहीं छोडता है. और फिर २ तल्पसे भ्रष्ट होकर एक दो तीन आदि क्रमसे उन कलाओंको पानेका प्रयत्न करता है। इसी प्रकारले सुमति सरीखीसीको पाकर भी आत्मा कुमतिले प्रीति करनेको उद्यत हुआ होगा। "आत्माने इस प्रकार दोनों कुलों सहित राज्य करते हुए 4. हुत काल व्यतीत कर दिया । अनन्तर कुमतिकी ठगाइमें फंसकर वह मोहको राज्य और कामको यौवराज्यपद देनेक लिये तैयार हुआ।" नटी-आर्य! वह आत्मा प्रबोधादि पुत्रोंको राज्य क्यों नहीं देता है? सूत्रधार-कुमतिके वगमें पड़कर पुरुष ऐसा ही करते है। नटी-ओह! क्या स्त्रियोंके अविचारित वचन ज्ञानवान आत्मा भी मान लेता है ? सूत्र-जी हां! आजकल सब लोग तियोंके कहे अनुसार ही काम करते हैं । (मुस्कुराना है) नटी-क्या पूर्वकालमें भी किसीने वीके कहे अनुसार काम किया है? मेरी समझमें तो किसीने नहीं किया होगा। सूत्र-नहीं! किया है. नुनो, रोल। वचन मानि दशरथने, कैकयिक दुखदाई। भक्तिवान अभिराम राम, रघुकुलदिनराई॥ १ म्यारह गुणस्थानमें चयाल्यात चारित्रको पारी जीव गिर पड़ता है।
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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