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________________ १०४ ज्ञानसूर्योदय नाटक। वाग्देवी-हा। इससे भी अधिक कल्याणस्वरूप वस्तु मेरे पास है । वह मुक्ति है। पुरुष-यदि ऐसा कोई पद है, तो हे देवि ! वह भी प्रदान, करो । आप सर्वदानसमर्थ हो । वाग्देवी-अब तुम अन्तके दो शुक्ल ध्यानोंसे (म्मतिम प्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्नि ) शेप बचे हुए चार तिया कर्मोंका अर्थात् वेदनीय, आयु, नाम गोत्रका, नाग करव मुक्तिको प्राप्त करो।' पुरुष-जो आज्ञा । ' वाग्देवी-इसी उपायसे अघतिया कोका क्षय करके पर मानन्दको प्राप्त करनेवाला सिद्ध पुरुष इस लोकमें सबको दूर प्रदान करै, जिनको निर्मल दर्शन लोकालोक विलोकत । ज्ञान अनन्त समस्त वस्तुकह जुगपत निरखत ।। जिनको सुख निरवाधरु. वल सब जग उद्धारक । रक्षा करहु हमारी सो, प्रसिद्ध शिवनायक ।। [मव जाते है। इति श्रीवादिचन्द्रसूरिविरचिते श्रीज्ञानसूर्योदयनाटके चतुर्थोऽय समार समाप्तोऽयं ग्रन्थः
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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