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________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक। त्तरपर्यायकी उत्पत्ति किस प्रकार हो सकेगी। और जब उत्तरपर्यायरूप क्रिया ही न होगी, 'तब यह प्रमाण है, और यह उसका फल है' इस प्रकारका व्यवहार भी नहीं रहेगा । इसी लिये मेरा कथन है कि जो वस्तु सर्वथा सर्व स्वभावसे विनाशीक होगी, वह कारणरूप पूर्व क्रियाका सर्वथा नाग हो जानेसे अर्थक्रियाकी करनेवाली नहीं हो सकेगी। जैसे कि कथंचित् नष्ट हुई जलकी तरंग, जलखभावको न छोड़कर नष्ट होनेके कालसे उत्तरकालम अर्थ एक समयमें नष्ट होकर दूसरे समयमें दूसरी तरंगको उत्पन्न कर देती है, सर्वथा नष्ट नहीं होती है । यदि वह सर्वथा नष्ट हो जाती, तो दूसरी तरंगको उत्पन्न करनेरूप अर्थक्रियाको नहीं कर सकती । यदि कहा जावे कि, सर्वथा नष्ट होनेपर भी अर्थ क्रियाका सम्पादन होता है, तो अतिप्रसग ढोप हो जावेगा : अर्थात् गधेके सींगोंसे भी कार्यकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी । क्योकि कारणरूप पूर्वपर्यायका अभाव दोनो जगह समान है । अतएर कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तु ही अर्थक्रियाकारी होती है. सर्वथ एक और अनित्यखभाव वस्तु नहीं !" पुरुष-पश्चात् अष्टशती-तब उसने कुछ विचार कर कहा. "तुम्हारा भला हो । तुम इस देशसे चली जाओ । यहा तुम्हारे रहनेके लिये स्थान नहीं है।" इस प्रकारसे जब उसने भी मेरी अवज्ञा की. तब मै आगे चल पड़ी। पुरुष-फिर क्या हुआ? अष्टशती-आगे मार्गमें मुझे मीमांसाविद्या दिखलाई
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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