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________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । "नित्यत्वैकान्तपक्षेपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क प्रमाणं व तत्फलम् ॥३७॥ (आप्तीमाना) "पदार्थको एकान्त (सर्वथा) ही नित्य माननसे उसमें विक्रि याका अभाव हो जावेगा । और क्रियाके अभावसे अर्थात् पान्तर न होनेसे कर्ताआदि कारकोंका पहले ही अभाव हो जावेगा। क्योंकि कारकोंकी संभावना तभी होती है. जब पदार्थोकी उत्पाद और नागरूप क्रिया होती है । और जब कारक नहीं होंगे, तब अनुमानादि प्रमाण और इनके फलोंकी (प्रमितिकी) संभावना कैसे हो सकती है? नहीं! क्योंकि प्रमाणके करनेवाले कारक होते हैं।" और जो वस्तु सर्वथा एकरूप तथा नित्यस्तभाव है, वह अर्थ कियाको नहीं कर सकती है। यदि कहो कि, कर सकती है. तो व. तलाओ, वह एक स्वभावरूप रहकर करती है, अथवा अनेक खभावरूप होकर करती है ? यदि एक खभावसे करती है. तोर म्पूर्ण विश्व एकरूप होना चाहिये । और यदि अनेक समावसे करती है, तो वह तुम्हारी सर्वथा कूटस्थ, नित्य, और अनेक सभा वरूप वस्तु, अनित्य हो जावेगी । क्योंकि कार्यकारणादिरूप पूर्व खभावको छोड़कर उत्तर स्वभावको प्रण करना ही अनित्यपना है। अतएव तुम्हें कथंचित् अनित्यत्व स्वीकार करना ही पड़ेगा।" यह सुनकर उसने कहा कि, “तुम्हारे सगसे हमारे गिप्यगणोंकी श्रद्धा सर्वथा नित्यखरूप विश्वके माननेसे उठ जावेगी. अर्थात् हमारे पक्षके माननेमें वे शिथिल हो जावेंगे । इसलिये प्रसन्न होकर तुम अपने इष्ट स्थानके लिये गमन करो।" इस प्रकारसे हे पिता! मुझे सांख्यविद्याने अपने यहां नहीं रहने दिए।
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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