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________________ ७९१ भीमद् राजचन्द्र ८६३ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान. गया हैवैसा किसी दूसरे धर्ममें नहीं है। 'मारने'शब्दको ही मार डालनेकी हद छाप तीर्थकरोंने आत्मामें 'मारी ' है। इस जगह उपदेशके वचन भी आत्मामें सर्वोत्कृष्ट असर करते हैं। श्रीजिनकी छातीमें मानो जीवहिंसाके परमाणु ही न हों, ऐसा श्रीजिनका अहिंसाधर्म है। जिसमें दया नहीं होती, वे जिन नहीं होते । जैनोंके हाथसे खून होनेकी घटनायें भी प्रमाणमें अल्प ही होंगी। जो जैन होता है वह असत्य नहीं बोलता। २. जैनधर्मके सिवाय दूसरे धर्मोके मुकाबले में अहिंसामें बौद्धधर्म भी चढ़ जाता है। प्राह्मणोंकी यज्ञ आदि हिंसक-क्रियाओंका नाश भी श्रीजिनने और बुद्धने ही किया है जो अबतक कायम है। ३ ब्राह्मणोंने यज्ञ आदि हिंसक धर्मवाले होनेसे श्रीजिनको तथा श्रीबुद्धको सख्त शब्दोंका प्रयोग करके धिक्कारा है । वह यथार्थ है। १. ब्राह्मणोंने स्वार्थबुद्धिसे यह हिंसक क्रिया दाखिल की है। श्रीजिनने तथा श्रीबुद्धने स्वयं वैभवका त्याग किया था। इससे उन्होंने निःस्वार्थ बुद्धिसे दयाधर्मका उपदेश कर, हिंसक-क्रियाका विच्छेद किया । जगत्के सुखमें उनकी स्पृहा न थी। ५. हिन्दुस्थानके लोग एक समय किसी विद्याका अभ्यास इस तरह छोड़ देते हैं कि उसे फिरसे प्रहण करते हुए उन्हें अरुचि हो जाती है । योरपियन लोगोंमें इससे उल्टी ही बात है। वे एकदम उसे छोड़ नहीं देते, परन्तु जारी ही रखते हैं । हाँ, प्रवृत्तिके कारण ज्यादा कम अभ्यास हो सकता हो, यह बात अलग है। (२२) रात्रि. १. वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्तकी है । इस कारण कम स्थितिका बंध भी कषायके बिना एक समयका पड़ता है, दूसरे समय वेदन होता है, और तीसरे समय निर्जरा हो जाती है। २. ई-पथिकी क्रिया चलनेकी क्रिया । ३. एक समयमें सात, अथवा आठ प्रकृतियोंका बंध होता है; यहाँ खुराक तथा विषका दृष्टान्त लेना चाहिये । जिस तरह खुराक एक जगहसे ली जाती है, परन्तु उसका रस हरेक इन्द्रियको पहुँचता है, और हरेक इन्द्रिय अपनी अपनी शक्ति अनुसार उसे ग्रहणकर उस रूपसे परिणमन करती है। उसमें अन्तर नहीं पड़ता; उसी तरह यदि कोई विष खा ले अथवा किसीको सर्प काट ले, तो वह क्रिया तो एक ही जगह होती है; परन्तु उसका असर विषरूपसे हरेक इन्द्रियको जुदे जुदे प्रकारसे समस्त शरीरमें होता है। इसी तरह कर्म बाँधते समय मुख्य उपयोग तो एक ही प्रकृतिका होता हैपरन्तु उसका असर अर्थात् बँटवारा दूसरी सब प्रकृतियोंके परस्परके संबंधको लेकर ही मिलता है। जैसा रस वैसा ही उसका प्रहण होता है। जिस भागमें सर्पदंश होता है, उस भागको यदि काट डाला जाय, तो जहर नहीं चढ़ता; उसी तरह यदि प्रकृतिका क्षय किया जाय, तो बंध पड़ता दुभा रुक जाता है और उसके कारण दूसरी प्रकृतियोंमें बँटवारा पड़ता हुआ रुक जाता है। जैसे दूसरे प्रयोगसे चढ़ा दुला विष वापिस उतर
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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