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________________ ८६३व्याख्यानसार-प्रभसमाधान ] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष ७५१ ५. ( आत्माके) गुणातिशयमें ही चमत्कार है। ६. सर्वोत्कृष्ट शान्त स्वभाव करनेसे परस्पर वैरवाले प्राणी अपने वैरभावको छोड़कर शान्त हो बैठते हैं; ऐसी श्रीतीर्थकरका अतिशय है। जो कुछ सिद्धि लब्धि इत्यादि हैं, वे आत्माके जाग्रतभावमें अर्थात् आत्माके अप्रमत्त स्वभावमें हैं। वे समस्त शक्तियाँ आत्माके आधीन हैं। आत्माके बिना कुछ नहीं । इन सबका मूल सम्यक्ज्ञान दर्शन और चारित्र है। ८. अत्यंत लेश्याशुद्धि होनेके कारण परमाणु भी शुद्ध होते हैं। यहाँ सात्त्विक असात्विक वृक्षके नीचे बैठनेसे होनेवाले असरका दृष्टान्त लेना चाहिये ।। ९. लब्धि सिद्धि सच्ची हैं; और वे निरपेक्ष महात्माको प्राप्त होती हैं जोगी वैरागी जैसे मिथ्यात्वीको प्राप्त नहीं होती। उसमें भी अनंत प्रकारके अपवाद हैं । ऐसी शक्तिवाले महात्मा प्रगट नहीं आते-वे वैसा बताते भी नहीं । जो जैसा कहता है वैसा उसके पास नहीं होता। १०. लब्धि क्षोभकारी और चारित्रको शिथिल करनेवाली है । लब्धि आदि मार्गसे च्युत होनेके कारण हैं । इससे ज्ञानीको उनका तिरस्कार होता है। ज्ञानीको जहाँ लब्धि, सिद्धि आदिसे च्युत होना संभव होता है, वहाँ वह अपनेसे विशेष ज्ञानीके आश्रयकी शोध करता है। ११. आत्माकी योग्यताके बिना यह शक्ति नहीं आती । आत्माको अपना अधिकार बढ़ा लेनेसे वह आती है। १२. जो देह छूटती है वह पर्याय छूट जाती है। परन्तु आत्मा आत्माकारसे अखंड अवस्थित रहती है; उसका अपना कुछ नहीं जाता; जो जाता है वह अपना नहीं-जबतक ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान न हो, तबतक मृत्युका भय लगता है।। १३. गुरु गणधर गुणधर अधिक (सकल), प्रचुर परंपर और । व्रततपधर तनु नगनतर, चंदौ वृष सिरमौर ॥ -स्वामीकार्तिक । * प्रचुर-अलग अलग-विरले । वृष-धन । सिरमौर-सिरका मुकुट ।। १४ अवगाद-मजबूत । परमावगाद उत्कृष्टरूपसे मजबूत । अवगाह-एक परमाणु प्रदेशको रोके-व्याप्त हो। श्रावक-ज्ञानीके वचनोंका श्रोता-ज्ञानीके वचनका श्रवण करनेवाला । दर्शन ज्ञानके बिना क्रिया करते हुए भी, श्रुतज्ञान बाँचते हुए भी, श्रावक साधु नहीं हो सकता । औदयिकभावसे ही श्रावक साधु कहा जाता है, पारिणामिकभावसे नहीं कहा जाता । स्थविर स्थिर-दृढ़ । १५. स्थविरकल्प-जो साधु वृद्ध हो गये हैं, उन्हें शासकी मर्यादासे वर्तन करनेका-चलनकाज्ञानियोंद्वारा मुकर्रर किया हुआ-बाँधा हुआ—निश्चित किया हुआ जिनमार्ग या नियम । १६. जिनकल्प एकाकी विचरनेवाले साधुओंके लिये कल्पित किया हुआ-बाँधा हुआ-मुकर्रर किया हुआ जिनमार्ग या नियम । (२१) ___ आषाढ वदी ८ गुरु. १९५६ १. सब धर्मोकी अपेक्षा जैनधर्म उत्कृष्ट दयाप्रणीत है। जैसा दयाका स्थापन उसमें किया * प्रधुरका प्रसिद्ध अर्थ 'बहुत होता है, और वृषका अर्थ 'धर्म' होता है। -अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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