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________________ ७५६ भीमद् राजवन्द्र [८३३ बीचके अवकाशमें स्वाध्यायमें लीनता करनी चाहिये । सर्व पर द्रव्योंमें एक समय भी उपयोग संगको न पावे, जब ऐसी दशाका जीव सेवन करता है, तब केवलज्ञान उत्पन्न होता है । परम गुणमय चारित्र चाहिये । बलवान असंग आदि स्वभाव. परम निर्दोष श्रुत. परम प्रतीति. परम पराक्रम. परम इन्द्रियजय. १ मूलका विशेषता. २ मार्गके प्रारंभसे लगाकर अंततककी अद्भुत संकलना। ३ निर्विवाद४ मुनिधर्म-प्रकाश. ५ गृहस्थधर्म-प्रकाश. ६ निग्रंथ परिभाषा-निधि. ७ श्रुतसमुद्र-प्रवेशमार्ग. ८३३ (१) वीतरागदर्शन-संक्षेप. मंगलाचरण-शुद्ध पदको नमस्कार. _भूमिकाः-मोक्षप्रयोजन. उस दुःखके दूर होनेके लिये, भिन्न भिन्न मतोंका पृथक्करण करके देखनेसे, उसमें वीतरागदर्शन पूर्ण और अविरुद्ध है, ऐसा सामान्य कथन; उस दर्शनका स्वरूप. उसकी जीवको अप्राप्ति, और प्रातिसे अनास्था होनेके कारण. मोक्षामिलाषी जीवको उस दर्शनकी कैसे उपासना करनी चाहिये । आस्था-उस आस्थाके प्रकार और हेतु. विचार-उस विचारके प्रकार और हेतु. विशुद्धि-उस विशुद्धिके प्रकार और हेतु. मध्यस्थ रहनेके स्थानक-उसके कारण. धीरजके स्थानक-उसके कारण. शंकाके स्थानक-उसके कारण, पतित होनेके स्थानक-उसके कारण. उपसंहार. . .. .. आस्था . पदार्थकी अचिंत्यता, बुद्धिमें ब्यायोह, कालदोष.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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