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________________ ३३वाँ वर्ष बम्बई, कार्तिक पूनम, १९५६ (१) १.. गुरुं गणधर गुणधर अधिक, प्रचुर परंपर और। . प्रततपपर तनु नगनधर, वंदो वृष सिरमौर ॥ २. जगत् , विषयके विक्षेपमें स्वरूपविभ्रांतिसे विश्रान्ति नहीं पाता। :. ३. अनंत अव्यावाष सुखका एक अनन्य उपाय स्वरूपस्थ होना ही है। यही हितकारी उपाय ज्ञानियोंने देखा है। भगवान् जिनने द्वादशांगीका इसीलिये निरूपण किया है, और इसी उत्कृष्टतासे यह शोभित है, जयवंत है। १. ज्ञानीक वाक्यके श्रवणसे उल्लासित हुआ जीव चेतन-जड़को यथार्थरूपसे भिन्नस्वरूप प्रतीत करता है, अनुभव करता है---अनुक्रमसे स्वरूपस्थ होता है । यथावस्थित अनुभव होनेसे वह स्वरूपस्थ हो सकता है। ५र्शनमोहका नाश होनेसे ज्ञानीके मार्गमें परमभक्ति उत्पन्न होती है-तत्त्वप्रतीति सम्यक्रूपसे उत्पन्न होती है। ... है. तलप्रतीतिसे शुद्ध चैतन्यके प्रति वृत्तिका प्रवाह फिर जाता है। ७. शुद्ध चैतपक अनुभवके लिये चारित्रमोहका नाश करना योग्य है । ८.,चारित्रमोह चैतन्यके-ज्ञानी-पुरुषके-सन्मार्गके नैष्ठिकभावसे नाश होता है। ९. असंगतासे परमावगाढ़ अनुभव हो सकता है। १०. हे. आर्य मुनिबुरो ! इसी असंग शुद्ध चैतन्यके लिये असंगयोगकी अहर्निश इच्छा करते है। हे मुनिवरो ! संगको अभ्यास करो। ११. जो महात्मा असंग चैतन्यमें लीन हुए है, होते हैं और होंगे, उन्हें नमस्कार हो । ॐ शान्तिः । . .. . ... .. . . __ (२) .... . ..... .. .. हे मुनियो ! जबतक केवल समवस्थानरूप सहजस्थिति स्वाभाविक न हो जाय, तबतक तुम . 'म्यान और सामायमें लीन हो। जीव जबलम्वाभाविक स्थितिमें स्थित हो जाय, तो वहाँ कुछ करना बाकी नहीं रहा। जहाँ जीवके atm वर्षमाननीयमान ना करते हैं, वहाँ ध्यान करना चाहिये । अर्थात् . पानी मानभावसे सर्व मान्यके परिचयसे विवाति पाकर निजस्वरूपके में रहना उचित है। उदयके पोसे मान जा अब छूट प्राप, तब तब उसका बात शौनतासे अनुसंधान.. : .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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