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________________ श्रीमद् राजवन्द्र पत्र ८०५ *डं कोण छु ! क्याथी थयो ! शुं स्वरूप छे मारूं खरू ! कोना संबंधे वळगणा छे ! राखुं के ए परिहरूं ! -इसपर जीव विचार करे, तो उसे नौ तत्त्वोंका-तत्त्वज्ञानका-संपूर्ण बोध प्राप्त हो जाता है। इसमें तत्त्वज्ञानका सम्पूर्ण समावेश हो जाता है । इसका शांतिपूर्वक विवेकसे विचार करना चाहिये । ५. बहुत बड़े लंबे लेखसे कुछ ज्ञानकी-विद्वत्ताकी-तुलना नहीं होती । परन्तु सामान्यरूपसे जीवोंको इस तुलनाका विचार नहीं है। ६. प्रमाद बड़ा शत्रु है । हो सके तो जिनमंदिरमें नियमित पूजा करने जाना चाहिये । रातमें भोजन न करना चाहिये । ज़रूरत हो तो गरम दूधका उपयोग करना चाहिये । ७. काव्य, साहित्य अथवा संगीत आदि कला यदि आत्मार्थके लिये न हों, तो वे कल्पित ही हैं। कल्पित अर्थात् निरर्थक---जो सार्थक न हो-वह जीवकी कल्पनामात्र है। जो भक्ति प्रयोजनरूप अथवा आत्मार्थके लिये न हो वह सब कल्पित ही है। ८०५ मोरबी, चैत्रवदी १२, १९५५ प्रश्नः-श्रीमद् आनन्दधनजीने श्रीअजितनाथजीके स्तवनमें कहा है-तरतम योग रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार । पंथडो० -इसका क्या अर्थ है ! उत्तरः-ज्यों ज्यों योगकी ( मन वचन कायाकी ) तरतमता अर्थात् अधिकता होती है, त्यों त्यों वासनाकी भी अधिकता होती है-यह ' तरतम योग रे तरतम वासना रे' का अर्थ है । अर्थात् यदि कोई पुरुष बलवान योगवाला हो, उसके मनोबल वचनबल आदि बलवान हों, और वह किसी पंथको चलाता हो; परन्तु जैसा बलवान उसका मन वचन आदि योग है, उसकी वैसी ही बलवान अपनेको मनवानेकी, पूजा करानेकी, मान सत्कार वैभव आदिकी वासना हो, तो उस वासनावालका बोध वासित बोध हुआ--कषाययुक्त बोध हुआ-वह विषय आदिकी लालसावाला बोध हुआ-वह मानके लिये बोध हुआ-आत्मार्थके लिये वह बोध न हुआ। श्रीआनंदघनजी श्रीअजितप्रभुका स्तवन करते हैं कि हे प्रभो ! ऐसा आधाररूप जो वासित बोध है, वह मुझे नहीं चाहिये । मुझे तो कषायरहित, आत्मार्थसंपन्न और मान आदि वासनारहित बोधकी जरूरत है । ऐसे पंथकी गवेषणा मैं कर रहा हूँ। मन वचन आदि बलवान योगवाले जुदे जुदे पुरुष बोधका प्ररूपण करते आये हैं, और प्ररूपण करते हैं। परन्तु हे प्रभो ! वासनाके कारण वह बोध वासित है, और मुझे तो वासनारहित बोधकी जरूरत है । हे वासनाविषय कषाय आदि जीतनेवाले जिन वीतराग अजितदेव ! ऐसा बोध तो तेरा ही है । उस तेरे पंथको मैं खोज रहा हूँ-देख रहा हूँ। वह आधार मुझे चाहिये । (२) आनंदघनजीकी चौबीसी कंठस्थ करने योग्य है । उसका अर्थ विवेचनपूर्वक लिखने योग्य है । सो लिखना। * मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप क्या है, किसके संबंधस यह संलमता है, इसे रक्खू या छोड़ दूं। देखो मोक्षमाला पृष्ठ ६७ पाठ ६७. -भनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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