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________________ पत्र ८०३,८०४] विविध पत्र आदि संग्रह-३२वाँ वर्ष (२) यदि परमसत्को पीड़ा पहुँचती हो, तो वैसे विशिष्ट प्रसंगके ऊपर देवता लोग रक्षण करते हैं, प्रगटरूपसे भी आते हैं । परन्तु बहुत ही थोड़े प्रसंगोंपर । योगी अथवा वैसी विशिष्ट शक्तिवाला उस प्रसंगपर सहायता कर सकता है, परन्तु वह ज्ञानी तो नहीं है। ___ जीवको मतिकल्पनासे ऐसा मालूम होता है कि मुझे देवताके दर्शन होते हैं, मेरे पास देवता आता है, मुझे उसका दर्शन होता है; परन्तु देवता इस तरह दिखाई नहीं देते। ८०३ मोरबी, चैत्र वदी १०, १९५५ (१) दूसरेके मनकी पर्याय जानी जा सकती है । परन्तु यदि अपने मनकी पर्याय जानी जा सके, तो दूसरेके मनकी पर्याय जानना सुलभ है । किन्तु अपने मनकी पर्याय जानना भी मुश्किल है। यदि स्वमन समझमें आ जाय तो वह वश हो सकता है। उसके समझनेके लिये सद्विचार और सतत एकाग्र उपयोगकी जरूरत है। (२) आसनजयसे (स्थिर आसन दृढ़ करनेसे) उत्थानवृत्तिका उपशमन होता है; उपयोग चपलतारहित हो सकता है; निद्रा कम हो सकती है । (३) सूर्यके प्रकाशमें जो बारीक बारीक सूक्ष्म रजके समान मालूम होता है, वे अणु नहीं, परन्तु वे अनेक परमाणुओंके बने हुए स्कंध हैं । परमाणु चक्षुसे नहीं देखा जा सकता । वह चक्षुइन्द्रियलब्धिके प्रबल क्षयोपशमवाले जीव अथवा दूरदेशीलब्धि-संपन्न योगी अथवा केवलीको ही दिखाई पड़ सकता है। ८०४ मोरबी, चैत्र वदी ११, १९५५ १. मोक्षमाला हमने सोलह बरस पाँच मासकी अवस्थामें तीन दिनमें बनाई थी । ६७वें पाठके ऊपर स्याही गिर जानेसे, उस पाठको फिरसे लिखना पड़ा था और उस स्थानपर 'बहु पुण्यकेरा पुंजयी' इस अमूल्य तात्त्विक विचारका काव्य लिखा था। २. उसमें जैनमार्गको यथार्थ समझानेका प्रयास किया है । उसमें जिनोक्तमार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक नहीं कहा। जिससे वीतरागमार्गपर आबालवृद्धकी रुचि हो, उसका स्वरूप समझमें भावे, उसके बीजका हृदयमें रोपण हो, इस हेतुसे उसकी बालावबोधरूप योजना की है। उस शैली तथा उस बोधका अनुसरण करनेके लिये यह एक नमूना उपस्थित किया है। इसका प्रज्ञावबोध नामका भाग भिन्न है, उसे कोई बनावेगा। ३. इसके छपनेमें विलम्ब होनेसे ग्राहकोंकी आकुलता दूर करनेके लिये, उसके बाद भावनाबोध रचकर, उसे प्राहकोंको उपहारस्वरूप दिया था।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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