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________________ ७३५ ७८१, ७८२] . विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष -भगवान् जिनने मुनियोंको आश्चर्यकारक निष्पापवृत्ति (आहारग्रहण) का उपदेश किया है। ( वह भी किसलिये !) केवल मोक्षसाधनके लिये-मुनिको जो देहकी आवश्यकता है उसके धारण करनेके लिये, (दूसरे अन्य किसी भी हेतुसे उसका उपदेश नहीं किया )। अहो णिचं तवो कम्मं, सव्वजिणेहिं वणियं । जाय लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥ -सर्व जिन भगवंतोंने आश्चर्यकारक (अद्भुत उपकारभूत) तपकर्मको नित्य ही करनेके लिये उपदेश किया है । (वह इस तरह कि ) संयमके रक्षणके लिये सम्यक्वृत्तिसे एक समय आहार लेना चाहिये। -दशवकालिकसूत्र. तथारूप असंग निर्मथपदके अभ्यासको सतत बढ़ाते रहना । प्रश्नव्याकरण दशवैकालिक और आत्मानुशासनको हालमें सम्पूर्ण लक्ष रखकर विचार करना। एक शास्त्रको सम्पूर्ण बाँच लेनेपर दूसरा विचारना। वनक्षेत्र, द्वि. आसोज सुदी १, १९५१ ७८१ ॐ नमः सर्व विकल्पोंका, तर्कका त्याग करके मनका । वचनका कायाका । जय करके इन्द्रियकार जय करके आहारका • निद्राका । निर्विकल्परूपसे अंतर्मुखवृत्ति करके आत्मध्यान करना चाहिये । मात्र निराबाध अनुभवस्वरूपमें लीनता होने देनी चाहिये। दूसरी कोई चिंतनान करनी चाहिये। जो जो तर्क आदि उठे, उन्हें दीर्घ कालतक न करते हुए शान्त कर देना चाहिये । ७८२ आभ्यंतर भान अवधूत, विदेहीवत, जिनकल्पीवत, सर्व परभाव और विभावसे व्यावृत्त, निजस्वभावके भानसहित, अवधूतवत् , विदेहवित् , जिनकल्पीवत् विचरते हुए पुरुष भगवान्के स्वरूपका ध्यान करते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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