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________________ ७२७ पत्र ७६६, ७६७] विविध पत्र मादि संग्रह-३१याँ वर्ष (१) पुण्य पाप और आयु ये एक दूसरेको नहीं दिये जा सकते । उन्हें हरेक अपने आप. ही भोगता है। (५) स्वच्छंदसे, अपनी मतिकी कल्पनासे और सद्गुरुकी आज्ञाके बिना ध्यान करना तरंगरूप है, और उपदेश व्याख्यान करना अभिमानरूप है। (६) देहधारी आत्मा पथिक है, और देह वृक्ष है। इस देहरूपी वृक्षमें (वृक्षके नीचे) जीवरूपी पथिक-रास्तागिर-विश्रान्ति लेने बैठा है । वह पथिक यदि वृक्षको ही अपना मानने लगे तो यह कैसे बन सकता है ! (७) सुंदरविलास सुंदर-श्रेष्ठ-ग्रंथ है । उसमें जहाँ कहीं कमी-भूल-है उसे हम जानते हैं । उस कमीको दूसरेको समझाना मुश्किल है । उपदेशके लिये यह अन्य उपकारी है। (८) छह दर्शनोंके ऊपर दृष्टान्तः-छह भिन्न भिन्न वैद्योंकी दुकान लगी है। उनमें एक वैद्य सम्पूर्ण सच्चा है; और वह सब रोगोंको, उनके कारणोंको और उनके दूर करनेके उपायोंको जानता है । तथा उसकी निदान-चिकित्सा सच्ची होनेसे रोगीका रोग निर्मूल हो जाता है । वैद्य कमाता भी अच्छा है । यह देखकर दूसरे पाँच कुवैद्य भी अपनी अपनी दुकान खोलते हैं । परन्तु जहाँतक उनके पास सचे वैवके घरकी दवा होती है, वहाँतक तो वे रोगीका रोग दूर करते हैं; और जब वे अपनी अन्य किसी कल्पनासे अपने घरकी दवा देते हैं, तो उससे उल्टा रोग बढ़ जाता है। तथा वे सस्ती दवा देते हैं, इससे लोभके मारे लोग उसे लेनेके लिये बहुत ललचाते हैं, परन्तु उससे उन्हें उल्टा नुकसान ही होता है। इसका उपनय यह है कि सच्चा वैद्य वीतरागदर्शन है, जो सम्पूर्ण सत्यस्वरूप है । वह मोहविषय आदिको राग-द्वेषको और हिंसा आदिको सम्पूर्णरूपसे दूर करनेके लिये कहता है; जो बात पराधीन रोगीको मॅहगी पड़ती है—अच्छी नहीं लगती । तथा जो अन्य पाँच कुवैद्य हैं, वे कुदर्शन हैं । वे जहाँतक वीतरागके घरकी बातें करते हैं, वहाँतक तो उनकी रोग दूर करनेकी बात ठीक है; परन्तु साथ साथ वे जो हिंसा आदि धर्मके बहाने, मोहकी संसार-वृद्धिकी और मिथ्यात्वकी बातें करते हैं, वह उनकी अपनी निजी कल्पनाकी ही बात है और वह संसाररूप रोग दूर करनेके बदले उसकी वृद्धिका ही कारण होती है । विषयमें रचे-पचे पामर संसारीको मोहकी बातें मीठी लगती हैं-सस्ती पड़ती हैं। इसलिये वह कुवैद्यकी तरफ आकर्षित होता है। परन्तु परिणाममें वह अधिक ही रोगी पड़ता है। वीतरागदर्शन त्रिवैद्यके समान है:-वह रोगीको दूर करता है, निरोगीको रोग होनेके लिये दवा देता नहीं, और आरोग्यकी पुष्टि करता है। अर्थात् वह जीवका सम्यग्दर्शनसे मिथ्यात्व दूर करता है, सम्यग्ज्ञानसे जीवको रोगका भोग होनेसे बचाता है, और सम्यक्चारित्रसे सम्पूर्ण शुद्ध चेतनारूप आरोग्यकी पुष्टि करता है। ७६७ वसो (गुजरात), प्रथम आसोज सुदी ६ बुध.१९५४ १. श्रीमत् वीतराग भगवंतोंका निश्चित किया हुआ अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परम हित
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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