SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 814
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२६ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ७६४, ७६५, ७६६ ७६४ बम्बई, आषाढ़ सुदी ११ गुरु. १९५४ अनंत अंतराय होनेपर भी धीर रहकर जिस पुरुषने अपार मोहजालको पार किया, उन श्रीभगवान्को नमस्कार है। - अनंतकालसे जो ज्ञान संसारका हेतु होता था, उस ज्ञानको एक समयमात्रमें जात्यंतर करके, जिसने उसे भवनिवृत्तिरूप किया, उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनको नमस्कार है ! निवृत्तियोगमें सत्समागमकी वृत्ति रखना योग्य है। . ७६५ मोहमयी, श्रावण सुदी १५ सोम. १९५४ १. मोक्षमार्गप्रकाश ग्रंथके विचारनेके बाद कर्मग्रंथ विचारनेसे अनुकूल पड़ेगा। २. दिगम्बर सम्प्रदायमें द्रव्यमनको आठ पांखडीका कहा है । खेताम्बर सम्प्रदायमें उस बातकी विशेष चर्चा नहीं की। योगशास्त्रमें उसके अनेक प्रसंग हैं । समागममें उसका स्वरूप जानना सुगम हो सकता है। ७६६ कविठा, श्रावण वदी १२ शनि. १९५४ ॐ नमः तुमने अपनी वृत्ति हालमें समागममें आनेके संबंधमें प्रगट की, उसमें तुम्हें अंतराय जैसा हुआ क्योंकि इस पत्रके पहुँचनेके पहिले ही लोगोंमें पर्युषणका प्रारंभ हुआ समझा जायगा । इस कारण तुम यदि इस ओर आओ, तो गुण-अवगुणका विचार किये बिना ही मताग्रही लोग निंदा करेंगे, और उस निमित्तको ग्रहण कर, वे बहुतसे जीवोंको उस निन्दाद्वारा, परमार्थकी प्राप्ति होनमें अंतराय उत्पन्न करेंगे। इस कारण जिससे वैसा न हो उसके लिये, तुम्हें हालमें तो पर्युषणमें बाहर न निकलनेसंबंधी लोकपद्धतिकी ही रक्षा करना चाहिये । वैराग्यशतक, आनंदघनचौबीसी, भावनाबोध आदि पुस्तकोंका जितना बाँचना विचारना बने, उतना निवृत्तिका लाभ लेना । प्रमाद और लोकपद्धतिमें ही कालको सर्वथा वृथा गुमा देना यह मुमुक्षु जीवका लक्षण नहीं। (२) (१) सत्पुरुष अन्याय नहीं करते । सत्पुरुष यदि अन्याय करें तो इस जगत्में बरसात किसके लिये पड़ेगी ! सूर्य किसके लिये प्रकाशित होगा ! वायु किसके लिये बहेगी! (२) आत्मा कैसी अपूर्व वस्तु है ! जबतक वह शरीरमें रहती है-भले ही वह हजारों वर्ष रहे तबतक शरीर नहीं सड़ता। आत्मा पारेके समान है। चेतन निकल जाता है और शरीर मुर्दा हो जाता है, और वह सड़ने लगता है। (३) जीवमें जापति और पुरुषार्थ चाहिये । कर्मबंध पानेके बाद उसमेंसे ( सत्तासे-उदय आनेके पहिले) छूटना हो तो अबाधाकाल पूर्ण होनेतक छटा जा सकता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy