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________________ ७५३ व्याख्यानसार] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष १७६. कार्माण शरीर भी इसी तरह है । वह तैजसकी अपेक्षा सूक्ष्म है। वह भी तैजसकी तरह रहता है । स्थूल शरीरके भीतर जो पीड़ा होती है, अथवा जो क्रोध आदि होते हैं, वही कार्माण शरीर है । कार्माणसे क्रोध आदि होकर तेजोलेश्या आदि उत्पन्न होती हैं। यद्यपि वेदनाका अनुभव जीव ही करता है, परन्तु जो वेदना होती है, वह कार्माण शरीरके कारण होती है। कार्माण शरीर जीवका अवलंबन है। १७७. ऊपर कहे हुए चार अनुयोगोंके तथा उनके सूक्ष्म भावोंके वरूपका जीवको विचार करना योग्य है-समझना योग्य है । वह परिणाममें निर्जराका हेतु होता है, अथवा उससे निर्जरा होती है । चित्तकी स्थिरता करनेके लिये ही यह सब कहा गया है । कारण कि जीवने यदि सक्षमसे सूक्ष्म स्वरूपको कुछ समझा हो तो उसके लिये बारंबार विचार करना होता है, और उस विचारके करनेसे जीवकी बाह्यवृत्ति न होकर, वह विचार करनेतक भीतरकी भीतर ही समाई रहती है। १७८. यदि जीवको अंतर्विचारका साधन न हो तो जीवकी वृत्ति बाह्य वस्तुके ऊपर जाकर, उससे तरह तरहके घाट घड़े जाते हैं । क्योंकि जीवको कोई अवलंबन तो चाहिये । उसे खाली बैठे रहना ठीक नहीं लगता; उसे ऐसी ही आदत पड़ गई है। इस कारण यदि उक्त पदार्थोका ज्ञान दुआ हो तो उसके विचारके कारण, सत्चित्तवृत्ति बाहर निकलकर जानेके बदले, भीतर ही समा जाती है; और ऐसा होनेसे निर्जरा होती है। १७९. पुद्गल-परमाणु और उसकी पर्याय आदिकी सूक्ष्मताको, जितना वह वचनका विषय हो सकता है, उतना कहा गया है। वह इसलिये कि ये पदार्थ मूर्तिमान हैं-अमर्तिमान नहीं। ये मूर्तिमान होनेपर भी इतने सूक्ष्म हैं कि उनका बारम्बार विचार करनेसे उनका स्वरूप समझमें आता है, और उनके उस तरह समझमें आनेसे, उससे सूक्ष्म अरूपी आत्मासंबंधी ज्ञान करनेका काम सरल हो जाता है। १८०. मान और मताग्रह ये मार्गप्राप्तिम स्तंभरूप हैं । उनका त्याग नहीं किया जा सकता, और इस कारण समझ भी नहीं आती । तथा समझ आनेमें विनय-भक्तिकी पहिले ज़रूरत पड़ती है। तथा वह भक्तिं मान-मताग्रहके कारण ग्रहण नहीं की जा सकती। . १८१. बाँचना, पूंछना, बारम्बार विचारना, चित्तमें निश्चय लाना और धर्मकथा । वेदान्तमें भी श्रवण मनन और निदिध्यासन ये भेद बताये हैं। १८२. उत्तराध्ययनमें धर्मके मुख्य चार अंग कहे हैं: (१) मनुष्यता (२) सत्पुरुषके वचनोंका श्रवण (३) उसकी प्रतीति और (१)धर्मका पाचरण करना—ये चार वस्तुयें दुर्लभ हैं। १८३. मिथ्यात्वके दो भेद हैं-व्यक्त और अन्यक्त । उसके तीन भेद भी किये गये हैं:उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य । जबतक उत्कृष्ट मिथ्यात्व रहता है तबतक जीव पहिले गुणस्थानकमेंसे बाहर नहीं निकलता। तथा जबतक उत्कृष्ट मिथ्यात्व होता है, तबतक वह मिथ्यात्व गुणस्थानक भी नहीं माना जाता । गुणस्थानक जीवके आश्रयसे होता है। .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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