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________________ श्रीमद् राजचन्द्र . . [७५३ मारपानसार १७०. किस किस प्रकृतिका किस रससे क्षय होना चाहिये ! किस प्रकृतिमें सत्ता है ! किसमें उदय होता है: कौन संक्रमणसे है ! इत्यादिकी रचनाको कहनेवालेने, ऊपर कहे अनुसार 'प्रकृतिके स्वरूपको माप तोलकर ही कहा है'इस उनकी परमज्ञानकी बातको यदि एक ओर रख दें तो भी, यह तो निश्चय होता है कि वह कथन करनेवाला ईश्वरकोटिका ही पुरुष होना चाहिये । १७१. जातिस्मरणज्ञान मतिज्ञानके धारणा नामक भेदमें गर्मित होता है । वह पिछले भवको जान सकता है । जबतक पिछले भवमें असंज्ञीपना न आया हो, तबतक वह आगे चल सकता है। १७२. (१) तीर्थकरने आज्ञा न दी हो, और जीव अपनी वस्तुके सिवाय परवस्तुका जो कुछ ग्रहण करता है, तो वह परका लिया हुआ और अदत्त ही गिना जाता है । उस अदत्तमेंसे तीर्थकरने परवस्तुकी जितनी ग्रहण करनेकी छूट दी है, उसको परवस्तु नहीं गिना जाता। (२) गुरुकी आज्ञानुसार किये गये आचरणके संबंध अदत्त नहीं गिना जाता। . १७३. उपदेशके मुख्य चार भेद हैं:(१) द्रव्यानुयोग (२) चरणानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) धर्मकथानुयोग. (१) लोकमें रहनेवाले द्रव्य, उनका स्वरूप, उनके गुण, धर्म, हेतु, अहेतु, पर्याय आदि अनंतानंत प्रकारोंका जिसमें वर्णन है, वह द्रव्यानुयोग है। (२) इस द्रव्यानुयोगका स्वरूप समझमें आनेके बाद, जिसमें आचरणसम्बन्धी वर्णन हो वह चरणानुयोग है। (३) द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोगकी गिनतीके प्रमाणका, तथा लोकमें रहनेवाले पदार्थ, भाव, क्षेत्र, काल आदिकी गिनतीके प्रमाणका जो वर्णन है वह गणितानुयोग है। (४) सत्पुरुषोंके धर्म-चरित्रकी कथायें-जिनका आश्रय लेनेसे वे गिरनेवाले जीवको अवलम्बनकारी होती हैं-धर्मकथानुयोग है। १७४. परमाणुमें रहनेवाले गुण स्वभाव आदि तो कायम रहते हैं, और पर्यायमें ही फेरफार होता है। उदाहरणके लिये पानीमें रहनेवाले शीत गुणमें फेरफार नहीं होता, परन्तु पानीमें जो तरंगें उठती हैं, उन्हींमें फेरफार होता है; अर्थात् वे एकके बाद एक उठकर उसमें समाती रहती हैं । इस तरह पर्यायावस्थाका ही अवस्थांतर हुआ करता है, परन्तु इससे पानीमें रहनेवाली शीतलतामें अथवा स्वयं पानीमें परिवर्तन नहीं होता; वे तो कायम ही रहते हैं; और पर्यायरूप तरंगोंमें ही परिवर्तन हुआ करता है । तथा उस गुणकी हानि वृद्धिरूप जो फेरफार है वह भी पर्याय ही है। उसके विचारसे प्रतीति, प्रतीतिसे त्याग, और त्यागसे ज्ञान होता है। १७५. तैजस और कार्माण शरीर स्थूल देहके प्रमाण हैं। तैजस शरीर गरमी करता है, और वह आहारके पचानेका काम करता है। शरीरके अमुक अमुक अंगके परस्पर रगडनेसे जो वे गरम मालम होते हैं, सो वे तैजसके कारण ही मालम होते हैं। तथा सिरके ऊपर घृत आदि लगाकर शरीरकी परीक्षा करनेकी भी जो रूढी प्रचलित है, उसका अर्थ भी यही है कि वह शरीर. स्थूल शरीरमें है अथवा नहीं ! अर्थात् वह शरीर, स्थूल शरीरमें जीवकी तरह, समस्त शरीरमें रहता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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