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________________ पत्र ७१५,७१६] विविध पत्र मावि संग्रह-३०याँ वर्ष ६७९ सच्चे अंतःकरणसे विशेष सत्समागमके आश्रयसे जीवको उत्कृष्ट दशा भी बहुत थोड़े समयमें ही प्राप्त हो जाती है। ३. व्यवहार अथवा परमार्थसंबंधी यदि कोई भी जीवकी वृत्ति हो तो उसे शमन करके, सर्वथा असंग उपयोगपूर्वक अथवा परम पुरुषकी उपरोक्त दशाके अवलम्बनपूर्वक, आत्मामें स्थिति करना चाहिये, यही निवेदन है । क्योंकि अन्य कोई भी विकल्प रखना उचित नहीं है । जो कोई सच्चे अंतःकरणसे सत्पुरुषके वचनको ग्रहण करेगा वह सत्यको पायेगा, इसमें कोई संशय नहीं; और शरीरका निर्वाह आदि व्यवहार सबके अपने अपने प्रारब्धके अनुसार ही प्राप्त होना योग्य है, इसलिये तत्संबंधी कोई भी विकल्प रखना उचित नहीं । उस विकल्पको यद्यपि तुमने प्रायः शान्त कर दिया है तो भी निश्चयकी प्रबलताके लिये यह लिखा है। १. सब जीवोंके प्रति, सब भावोंके प्रति, अखंड एकरस वीतरागदशाका रखना ही सर्व ज्ञानका ___आत्मा, शुद्धचैतन्य जन्म जरा मरणरहित असंगस्वरूप है। इसमें सर्व ज्ञानका समावेश हो जाता है । उसकी प्रतीतिमें सर्व सम्यग्दर्शनका समावेश हो जाता है । आत्माकी असंगस्वरूपसे जो स्वभावदशा रहना है, वह सम्यक्चारित्र उत्कृष्ट संयम और वीतरागदशा है । उसकी सम्पूर्णताका फल सर्व दुःखोंका क्षय हो जाना है, यह बिलकुल सन्देहरहित है-बिलकुल सन्देहरहित है। यही प्रार्थना है। ७१६ बम्बई, ज्येष्ठ वदी १२ शनि. १९५३ आर्य श्रीसोभागके मरणके समाचार पढ़कर बहुत खेद हुआ । ज्यों ज्यों उनके अनेक अद्भुत गुणोंके प्रति दृष्टि जाती है, त्यों त्यों अधिकाधिक खेद होता है। जीवको देहका संबंध इसी तरहसे है । ऐसा होनेपर भी जीव अनादिसे देहका त्याग करते समय खेद प्राप्त किया करता है, और उसमें दृढ़ मोहसे एकभावकी तरह रहता है । यही जन्म मरण आदि संसारका मुख्य बीज है । श्रीसोभागने ऐसी देहको छोड़ते हुए, महान् मुनियोंको भी दुर्लभ ऐसी निश्चल असंगतासे निज उपयोगमय दशा रखकर अपूर्व हित किया है, इसमें संशय नहीं। उनके पूज्य होनेसे, उनका तुम्हारे प्रति बहुत उपकार होनेसे, तथा उनके गुणोंकी अद्भुतताके कारण, उनका वियोग तुम्हें अधिक खेदकारक हुआ है, और होना योग्य भी है। तुम उनके प्रति सांसारिक पूज्यभावके खेदको विस्मरण कर, उन्होंने तुम सबके लिये जो परम उपकार किया हो, तथा उनके गुणोंकी जो तुम्हें अद्भुतता मालूम हुई हो, उसका बारम्बार स्मरण करके, · उस पुरुषका वियोग हो गया है, इसका अंतरमें खेद रखकर, उन्होंने आराधना करने योग्य जो जो वचन और गुण बताये हों उनका स्मरण कर, उसमें आत्माको प्रेरित करनेके लिये ही तुम सबसे प्रार्थना है। समागममें आये हुए मुमुक्षुओंको श्रीसोभागका स्मरण सहज ही अधिक समयतक रहने योग्य है । . जिस समय मोहके कारण खेद उत्पन्न हो उस समयमें भी उनके गुणोंकी अद्भुतताको स्मरणमें लाकर, उत्पन्न होनेवाले खेदको शान्त कर, उनके गुणोंकी अद्भुतताका वियोग हो गया है, इस तरह बह खेद करना योग्य है। . . . . . .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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