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________________ . . भीमद् राजचन्द्र [पत्र ७१४,७१५ ७१४ बम्बई, ज्येष्ठ सुदी ८ भौम. १९५३ जिसे किसीके प्रति राग और द्वेष नहीं रहा, उस महात्माको नमस्कार है ! १. परमयोगी श्रीऋषभदेव आदि पुरुष भी जिस देहका रक्षण नहीं कर सके, उस देहमें एक विशेषता यह है कि जबतक जीवको उसका संबंध रहे तबतक जीवको असंगता-निर्मोहीपना-प्राप्त करके, अबाध्य अनुभवरूप . निजस्वरूपको जानकर, अन्य सब भावोंसे व्यावृत्त (मुक्त ) हो जाना चाहिये, जिससे फिरसे जन्म-मरणका आवागमन न रहे । २. उस देहको छोड़ते समय जितने अंशमें असंगता-निर्मोहीपना-यथार्थ समरसभाव रहता है, उतना ही मोक्षपद पासमें रहता है, ऐसा परमज्ञानी पुरुषका निश्चय है। ३. इस देहमें करने योग्य कार्य तो एक ही है कि किसीके प्रति किंचित् भी राग और द्वेष न रहे-सर्वत्र समदशा ही रहे—यही कल्याणका मुख्य निश्चय है। ४. कुछ भी मन वचन और कायाके योगसे जाने या बिना जाने कोई अपराध हुआ हो तो उसकी विनयपूर्वक क्षमा माँगता हूँ-अत्यन्त नम्रभावसे क्षमा माँगता हूँ। ७१५ बम्बई, ज्येष्ठ वदी ६ रवि. १९५३ परमपुरुष-यशा-वर्णन १. कीचसौ कनक जाकै नीचसौ नरेस पद, मीचसी मिताई गरुवाई जाकै गारसी। जहरसी जोग-जाति कहरसी करामाति, हहरसी हौस पुदगल-छवि छारसी ॥ जालसौ जग-बिलास भालसौ भुवनवास, कालसौ कुटुंबकाज लोक-लाज लारसी । सीठसौ सुजमु जाने बीठसौ बखत मान, ऐसी जाकी रीति ताही वंदत बनारसी ॥ जो कंचनको कीचड़के समान मानता है, राजगद्दीको नीचपदके समान समझता है, किसीसे मित्रता करनेको मरणके समान समझता है, बड़प्पनको लीपनेके गोबरके समान मानता है, कीमिया आदिको जो जहरके समान गिनता है, सिद्धि आदि ऐश्वर्यको जो असाताके समान समझता है, जग. त्में पूज्यता होने आदिकी हविसको अनर्थक समान गिनता है, पुद्गलकी छबि ऐसी औदारिक आदि कायाको राखके समान समझता है, जगत्के भोग-विलासको जंजालके समान मानता है, गृहवासको भालेके समान समझता है, कुटुम्बके कार्यको काल-मृत्यु-के समान गिनता है, लोकमें लाज बढ़ानेकी इच्छाको मुखकी लारके समान समझता है, कीर्तिकी इच्छाको नाकके मैलके समान समझता है, और पुण्यके उदयको जो विष्टाके समान समझता है-ऐसी जिसकी रीति है, उसे बनारसीदास नमस्कार करते हैं। २. किसीके लिये कुछ विकल्प न करते हुए असंगभाव ही रखना । ज्यों ज्यों वे सत्पुरुषके वचनोंकी प्रतीति करेंगे, ज्यों ज्यों उसकी आज्ञापूर्वक उनकी अस्थि मज्जा रँगी जायगी, त्यो त्यों वे सब जीव आत्म-कल्याणको सुगमतासे प्राप्त करेंगे इसमें सन्देह नहीं है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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