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________________ ६५३ १९४] विविध पत्र मादि संग्रह-३०याँ वर्ष सर्वज्ञदेव, निम्रय गुरु और सर्वज्ञोपदिष्ट धर्मकी प्रतीतिसे तत्वकी प्रतीति होती है। सर्व ज्ञानावरण, दर्शनावरण, सर्व मोह, और सर्व वीर्य आदि अंतरायका क्षय होनेसे आत्माका सर्वज्ञवीतराग-स्वभाव प्रगट होता है । निग्रंथपदके अभ्यासका उत्तरोत्तर क्रम उसका मार्ग है । उसका रहस्य सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म है। (१०) सर्वज्ञ-कथित उपदेशसे आत्माका स्वरूप जानकर उसकी सम्यक् प्रकार प्रतीति करके उसका ध्यान करो। ज्यों ज्यों ध्यानकी विशुद्धि होगी त्यों त्यों ज्ञानावरणीयका क्षय होगा। वह ध्यान अपनी कल्पनासे सिद्ध नहीं होता। जिन्हें ज्ञानमय आत्मा परमोत्कृष्ट भावसे प्राप्त हुई है, और जिन्होंने समस्त पर द्रव्यका त्याग कर दिया है, उस देवको नमस्कार हो ! नमस्कार हो! बारह प्रकारके निदानरहित तपसे, वैराग्यभावनासे भावित और अहंभावसे रहित ज्ञानीके ही कर्मोकी निर्जरा होती है। वह निर्जरा भी दो प्रकारकी समझनी चाहिये:-स्वकालप्राप्त और तपपूर्वक । पहिली निर्जरा चारों गतियोंमें होती है और दूसरी व्रतधारीको ही होती है। __ज्यों ज्यों उपशमकी वृद्धि होती है त्यों त्यों त्यों तप करनेसे कर्मकी अधिक निर्जरा होती है। उस निर्जराके क्रमको कहते हैं । मिथ्यादर्शनमें रहते हुए भी जिसे थोड़े समयमें उपशमसम्यग्दर्शन प्राप्त करना है, ऐसे जीवकी अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टिको असंख्यात गुण निर्जरा होती है, उससे असंख्यात गुण निर्जरा देशविरतिको होती है, उससे असंख्यात गुण निर्जरा सर्वविरति ज्ञानीको होती है। उससे -(अपूर्ण) हे जीव इतना अधिक क्या प्रमाद ! शुद्ध आत्म-पदकी प्राप्तिके लिये वीतराग सन्मार्गकी उपासना करनी चाहिये । सर्वज्ञदेव निग्रंथ गुरु ये शुद्ध आत्मदृष्टि होनेके अवलंबन हैं। दयामुख्य धर्म ) श्रीगुरुसे सर्वज्ञद्वारा अनुभूत ऐसे शुद्ध आत्मप्राप्तिके उपायको समझकर, उसके रहस्यको ध्यानमें लेकर आत्मप्राप्ति करो। सर्वविरति-धर्म यथाजाति और यथालिंग है । देशविरति-धर्म बारह प्रकारका है। स्वरूपदृष्टि होते हुए द्रव्यानुयोग सिद्ध होता है। विवाद-पद्धति शांत करते हुए चरणानुयोग सिद्ध होता है। . . . . . . . प्रतातियुक्त दृष्टि होते हुए करणानुयोग सिद्ध होता है। . . . . . . पळबोधके नुको समझाते हुए धर्मकथानुयोग सिद्ध होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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