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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [६९४ पुण्य और पापः-जीवको शुभ और अशुभ भावके कारण ही पुण्य पाप होते हैं । साता, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्रका हेतु पुण्य है । उससे उल्टा पाप है । ' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये मोक्षके कारण हैं । व्यवहारनयसे ये तीनों अलग अलग हैं । निश्चयसे आत्मा ही इन तीनों रूप है। आत्माको छोड़कर ये तीनों रत्न अन्य किसी भी द्रव्यमें नहीं रहते, इसलिये आत्मा इन तीनों रूप है, और इस कारण मोक्षका कारण भी आत्मा ही है। जीव आदि तत्त्वोंकी आस्थारूप आत्मस्वभाव सम्यग्दर्शन है। मिथ्या आग्रहसे रहित होना सम्यग्ज्ञान है । संशय विपर्यय और भ्रांतिसे रहित जो आत्मस्वरूप और परस्वरूपको यथार्थरूपसे ग्रहण कर सके वह सम्यग्ज्ञान है। उसके साकार उपयोगरूप अनेक भेद हैं। जो मावोंके सामान्यस्वरूप उपयोगको ग्रहण कर सके वह दर्शन है। दर्शन शब्द श्रद्धाके अर्थमें भी प्रयुक्त होता है, ऐसा आगममें कहा है। छन्मस्थको पहिले दर्शन और पीछे ज्ञान होता है; केवलीभगवान्को दोनों साथ साथ होते हैं। अशुभ भावसे निवृत्ति और शुभ भावमें प्रवृत्ति होना चारित्र है। व्यवहारनयसे श्रीवीतरागियोंने उस चारित्र व्रतको समिति-गुप्तिरूपसे कहा है । संसारके मूल हेतुओंका विशेष नाश करनेके लिये, ज्ञानी-पुरुषके जो बाह्य और अंतरंग क्रियाका निरोध होना है, उसे वीतरागियोंने परम सम्यक्चारित्र कहा है। . . . . . मुनि ध्यानके द्वारा मोक्षके कारणभूत इन दोनों चारित्रोंको अवश्य प्राप्त करते हैं; उसके लिये प्रयत्नवान चित्तसे ध्यानका उत्तम अभ्यास करो। यदि तुम स्थिरताकी इच्छा करते हो तो प्रिय अप्रिय वस्तुमें मोह न करो, राग न करो. द्वेषन करो । अनेक प्रकारके ध्यानकी प्राप्तिके लिये पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक परमेष्ठीपदके वाचक जो मंत्र हैं, उनका जपपूर्वक ध्यान करो । इसका विशेष स्वरूप श्रीगुरुके उपदेशसे जानना चाहिये। ॐ नमः - सर्व दुःखोंका आत्यंतिक अभाव और परम अव्याबाध सुखकी प्राप्ति ही मोक्ष है, और वही परम हित है । वीतराग सन्मार्ग उसका सदुपाय है। उस सन्मार्गका संक्षिप्त विवेचन इस तरह है:सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी एकता ही मोक्षमार्ग है। सर्वज्ञके ज्ञानमें भासमान तत्त्वोंकी सम्यक् प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। उस तत्वका बोध होना सम्यग्ज्ञान है। उपादेय तत्त्वका अभ्यास होना सम्यक्चारित्र है। शुद्ध आत्मपदस्वरूप वीतरागपदमें स्थिति होना, यह तीनोंकी एकता है। ::... .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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