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________________ ६०४ श्रीमद् राजचन्द्र [६६. आत्मा ही उन्हें देखने और जाननेवाली है। उन सब संयोगोंका विचार करके देखो तो तुम्हें किसी भी संयोगसे अनुभवस्वरूप आत्मा उत्पन्न हो सकने योग्य मालूम न होगी। . कोई भी संयोग ऐसे नहीं जो तुम्हें जानते हों, और तुम तो उन सब संयोगोंको जानते हो, इसीसे तुम्हारी उनसे भिन्नता, और असंयोगीपना-उन संयोगोंसे उत्पन्न न होना-सहज ही सिद्ध होता है, और अनुभवमें आता है । उससे—किसी भी संयोगसे—जिसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, कोई भी संयोग जिसका उत्पत्तिके लिये अनुभवमें नहीं आ सकता, और जिन संयोगोंकी हम कल्पना करें उससे जो अनुभव भिन्न-सर्वथा भिन्न-केवल उसके ज्ञातारूपसे ही रहता है, उस अनुभवस्वरूप आत्माको तुम नित्य स्पर्शरहित-जिसने उन संयोगोंके भावरूप स्पर्शको प्राप्त नहीं किया—समझो । जडथी चेतन उपजे, चेतनयी जड थाय। एवो अनुभव कोईने, क्यारे कदी न थाय ॥६५॥ जड़से चेतन उत्पन्न होता है और चेतनसे जड़ उत्पन्न होता है, ऐसा किसीको कभी भी अनुभव नहीं होता। कोइ संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय। नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय ॥ ६६ ॥ जिसकी उत्पत्ति किसी भी संयोगसे नहीं होती, उसका नाश भी किसीके साथ नहीं होता इसलिये आत्मा त्रिकाल 'नित्य' है ।। जो किसी भी संयोगसे उत्पन्न न हुआ हो, अर्थात् अपने स्वभावसे ही जो पदार्थ सिद्ध हो, उसका नाश दूसरे किसी भी पदार्थके साथ नहीं होता; और यदि दूसरे पदार्थके साथ उसका नाश होता हो तो प्रथम उसमेंसे उसकी उत्पत्ति होना आवश्यक थी, नहीं तो उसके साथ उसकी नाशरूप एकता भी नहीं हो सकती । इसलिये आत्माको अनुत्पन्न और अविनाशी समझकर यही प्रतीति करना योग्य ह कि वह नित्य है। क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी माय । पूर्वजन्म-संस्कार ते, जीव नित्यता त्यांय ॥ ६७॥ सर्प आदि प्राणियोंमें क्रोध आदि प्रकृतियोंकी विशेषता जन्मसे ही देखने में आती है-कुछ वर्तमान देहमें उन्होंने वह अभ्यास किया नहीं । वह तो उनके जन्मसे ही है। यह पूर्व जन्मका ही संस्कार है । यह पूर्वजन्म जीवकी नित्यता सिद्ध करता है। समें जन्मसे क्रोधकी विशेषता देखनेमें आती है । कबूतरमें जन्मसे ही अहिंसक-वृत्ति देखनेमें आती है । मकड़ी आदि जंतुओंको पकड़नेपर उन्हें पकड़नेसे दुःख होता है, यह भय संज्ञा उनके अनुभवमें पहिलेसे ही रहती है; और इस कारण ही वे भाग जानेका प्रयत्न करते हैं। इसी तरह किसी प्राणी में जन्मसे ही प्रीतिकी, किसीमें समताकी, किसीमें निर्भयताकी, किसीमें गंभीरताकी, किसीमें विशेष मय संज्ञाकी, किसीमें काम आदिके प्रति असंगताकी, और किसीमें आहार आदिमें अत्यधिक लुब्धताकी विशेषता देखनेमें आती है। इत्यादि जो भेद हैं अर्थात् क्रोध आदि संज्ञाकी जो न्यूनाधिकता है, तथा उन सब प्रकृतियोंका जो साहचर्य है, वह जो जन्मसे ही साथ देखनेमें आता है उसका कारण पूर्व-संस्कार ही हैं। . . कदाचित् यह कहें कि गर्भ में वीर्य और रेतसके गुणके संयोगसे उस उस तरहके गुण उत्पन्न
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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