SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६.] मात्मसिद्धि समाधान:-देहका जीवके साथ मात्र संयोग संबंध है। वह कुछ जविके मूल स्वरूपके उत्पन्न होनेका कारण नहीं । अथवा जो देह है वह केवल संयोगसे ही उत्पन्न पदार्थ है; तथा वह जड़ है अर्थात् वह किसीको भी नहीं जानती; और जब वह अपनेको ही नहीं जानती तो फिर दूसरेको तो वह क्या जान सकती है ! तथा देह रूपी है-स्थूल आदि स्वभावयुक्त है, और चक्षुका विषय है। जब स्वयं देहका ही ऐसा स्वरूप है तो वह चेतनकी उत्पत्ति और नाशको किस तरह जान सकती है ! अर्थात् जब वह अपनेको ही नहीं जानती तो फिर 'मेरेसे यह चेतन उत्पन्न हुआ है,' इसे कैसे जान सकती है। और ' मेरे छूट जानेके पश्चात् यह चेतन भी छूट जायगा-नाश हो जायगा'-इस बातको जड़ देह कैसे जान सकती है ! क्योंकि जाननेवाला पदार्थ ही तो जाननेवाला रहता है—देह तो कुछ जाननेवाली हो नहीं सकती; तो फिर चेतनकी उत्पत्ति और नाशके अनुभवको किसके आधीन कहना चाहिये ! __ . यह अनुभव देहके आधीन तो कहा जा सकता नहीं। क्योंकि वह प्रत्यक्ष जड़ है, और उसके जडत्वको जाननेवाला उससे भिन्न कोई दूसरा ही पदार्थ समझमें आता है । कदाचित् यह कहें कि चेतनकी उत्पत्ति और नाशको चेतन ही जानता है, तो इस बातके बोलनेम ही इसमें बाधा आती है। क्योंकि फिर तो चेतनकी उत्पत्ति और नाश जाननेवालेके रूपमें चेतनका ही अंगीकार करना पड़ा; अर्थात् यह वचन तो मात्र अपसिद्धांतरूप और कथनमात्र ही हुआ। जैसे कोई कहे कि 'मेरे मुंहमें जीभ नहीं,' उसी तरह यह कथन है कि 'चेतनकी उत्पत्ति और नाशको चेतन जानता है, इसलिये चेतन नित्य नहीं'। इस प्रमाणकी कैसी यथार्थता है, उसे तो तुम ही विचार कर देखो। जेना अनुभव वश्य ए, उत्पन्न लयनुं ज्ञान । ते तेथी जूदा विना, थाय न केमें भान ॥ ६३॥ जिसके अनुभवमें इस उत्पत्ति और नाशका ज्ञान रहता है, उस ज्ञानको उससे भिन्न माने बिना, वह ज्ञान किसी भी प्रकारसे संभव नहीं। अर्थात् चेतनकी उत्पत्ति और नाश होता है, यह किसीके भी अनुभवमें नहीं आ सकता ॥ देहकी उत्पत्ति और देहके नाशका ज्ञान जिसके अनुभवमें रहता है, वह उस देहसे यदि जुदा न हो तो किसी भी प्रकारसे देहकी उत्पत्ति और नाशका ज्ञान नहीं हो सकता । अथवा जो जिसकी उत्पत्ति और नाशको जानता है वह उससे जुदा ही होता है, और फिर तो वह स्वयं उत्पत्ति और नाशरूप न ठहरा, परन्तु उसके जाननेवाला ही ठहरा । इसलिये फिर उन दोनोंकी एकता कैसे हो सकती है ! जे संयोगो देखिये, ते ते अनुभव दृश्य । उपजे नहीं संयोगयी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥६४॥ जो जो संयोग हम देखते हैं, वे सब अनुभवरूप आत्माके दृश्य होते हैं, अर्थात् आत्मा उन्हें जानती है और उन संयोगोंके स्वरूपका विचार करनेसे ऐसा कोई भी संयोग समझमें नहीं आता जिससे आत्मा उत्पन्न होती हो । इसलिये आत्मा संयोगसे अनुत्पन्न है अर्थात् वह असंयोगी हैस्वाभाविक पदार्थ है-इसलिये वह स्पष्ट नित्य' समझमें आती है। ... जो जो देह आदि संयोग दिखाई देते हैं वे सब अनुभवस्वरूप आत्माके ही दृश्य हैं, अर्थात्
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy