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________________ ६४५] उपदेश-छाया जो जीव आत्मेच्छा रखता है, वह पैसेको नाकके मैलकी तरह त्याग देता है । जैसे मक्खियाँ मिठाईपर चिपटी रहती हैं, उसी तरह ये अभागे जीव कुटुम्बके सुखमें लवलीन हो रहे हैं। वृद्ध, युवा, बालक-ये सब संसारमें डूबे हुए हैं-कालके मुखमें हैं, ऐसा भय रखना चाहिये । उस भयको रख संसारमें उदासीनतासे रहना चाहिये । सौ उपवास करे, परन्तु जबतक भीतरसे वास्तविक दोष दूर न हों तबतक फल नहीं होता। श्रावक किसे कहना चाहिये ! जिसे संतोष आया हो, कषाय जिसकी मंद पड़ गई हों, भीतरसे गुण उदित हुए हों, सत्संग मिला हो-उसे श्रावक कहना चाहिये। ऐसे जीवको बोध लगे तो समस्त वृत्ति बदल जाय-दशा बदल जाय । सत्संग मिलना यह पुण्यका योग है। जीव अविचारसे भूले हुए हैं । जरा कोई कुछ कह दे तो तुरत ही बुरा लग जाता है, परन्तु विचार नहीं करते कि मुझे क्या ! वह कहेगा तो उसे ही कर्म-बंध होगा। सामायिक समताको कहते हैं । जीव अहंकार कर बाह्य-क्रिया करता है, अहंकारसे माया खर्च करता है. वे कुगतिके कारण हैं । सत्संगके बिना यह दोष नहीं घटता । जीवको अपने आपको होशियार कहलवाना बहुत अच्छा लगता है । वह बिना बुलाये होशियारी करके बड़ाई लेता है। जिस जीवको विचार नहीं, उसके छठनेका अन्त नहीं । यदि जीव विचार करे और सन्मार्गपर चले तो छूटनेका अन्त आवे । अहंकारसे मानसे कैवल्य प्रगट नहीं होता । वह बड़ा दोष है। अज्ञानमें बड़े छोटेकी कल्पना रहती है । बाहुबलिजीने विचारा कि मैं अंकुशरहित हूँ, इसलिये (११) आनंद, भाद्रपद वदी १४ सोम. पंदरह भेदोंसे जो सिद्ध कहा है, उसका कारण यह है कि जिसका राग द्वेष और अज्ञान नष्ट हो गया है, उसका चाहे जिस वेषसे, चाहे जिस स्थानसे और चाहे जिस लिंगसे कल्याण हो जाता है। सत् मार्ग एक ही है, इसलिये आग्रह नहीं रखना । अमुक ढूंढिया है, अमुक तप्पा है, ऐसी कल्पना नहीं रखना । दया सत्य आदि सदाचरण मुक्तिके मार्ग हैं इसलिये सदाचरण सेवन करना चाहिये। ___ लोंच करना किस लिये कहा है ! शरीरकी ममताकी वह परीक्षा है। (सिरमें बाल होना ) यह मोह बढ़नेका कारण है । उससे स्नान करनेका मन होता है, दर्पण लेनेका मन होता है, उसमें मुँह देखनेका मन होता है, और इससे फिर उनके साधनोंके लिये उपाधि करनी पड़ती है। इस कारण ज्ञानियोंने केशलोंच करनेके लिये कहा है। ___यात्रा करनेका एक तो कारण यह है कि गृहवासकी उपाधिसे निवृत्ति मिल सके दूसरे सौ दोसौ रुपयोंके ऊपरसे मूर्छाभाव कम हो सके; तथा परदेशमें देशाटन करनेसे कोई सत्पुरुष खोजते खोजते मिल जाय तो कल्याण हो जाय । इन कारणोंसे यात्रा करना बताया है। जो सत्पुरुष दूसरे जीवोंको उपदेश देकर कल्याण बताते हैं, उन सत्पुरुषोंको तो अनंत काम प्राप्त हुआ है । सत्पुरुष दूसरे जीवकी निष्काम करुणाके सागर है । काणीके उदय अनुसार उनकी
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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