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________________ ५७० भीमद् राजचन्द्र 'सबकी अपेक्षा मैं संसारमें बड़ा हो जाऊँ' ऐसे बडप्पनके प्राप्त करनेकी तृष्णा, पाँच इन्द्रियोंमें लवलीन, मद्यपायीकी तरह, मृग-तृष्णाके जलके समान, संसारमें जीव भ्रमण किया करता है और कुल, गाँव और गतियोंमें मोहके नचानेसे नाचा करता है। जिस तरह कोई अंधा रस्सीको बटता जाता है, और बछड़ा उसे चबाता जाता है, उसी तरह अज्ञानीकी क्रिया निष्फल चली जाती है। 'मैं कर्ता हूँ, मैं करता हूँ, मैं कैसा करता हूँ' इत्यादि जो विभाव है, वही मिथ्यात्व है । अहंकारसे संसारमें अनंत दुःख प्राप्त होता है-चारों गतियोंमें भटकना होता है। किसीका दिया हुआ दिया नहीं जाता; किसीका लिया हुआ लिया नहीं जाता; जीव व्यर्थकी कल्पना करके ही भटका करता है । जिस प्रमाणमें कर्मोंका उपार्जन किया हो उसी प्रमाणमें लाभ, अलाभ, आयु, साता असाता मिलते हैं। अपने आपसे कुछ दिया लिया नहीं जाता। जीव अहंकारसे ' मैंने इसे मुख दिया, मैंने दुःख दिया, मैंने अन्न दिया' ऐसी मिथ्या भावनायें किया करता है और उसके कारण कर्म उपार्जन करता है । मिथ्यात्वसे विपरीत धर्मका उपार्जन करता है। जगत्में यह इसका पिता है यह इसका पुत्र है, ऐसा व्यवहार होता है, परन्तु कोई भी किसीका नहीं । पूर्व कर्मके उदयसे ही सब कुछ बना है। ___अहंकारसे जो ऐसी मिथ्याबुद्धि करता है, वह भूला हुआ है-वह चार गतियोंमें भटकता है, और दुःख भोगता है। ___अधमाधम पुरुषके लक्षणः-सत्पुरुषको देखकर जिसे रोष उत्पन्न होता है, उसके सच्चे वचन सुनकर जो उसकी निंदा करता है-खोटी बुद्धिवाला जैसे सद्बुद्धिवालेको देखकर रोष करता है-सरलको मूर्ख कहता है, जो विनय करे उसे धनका खुशामदी कहता है, पाँच इन्द्रियाँ जिसने वश की हों उसे भाग्यहीन कहता है, सच्चे गुणवालेको देखकर रोष करता है, जो स्त्री-पुरुषके सुखमें लवलीन रहता है-ऐसे जीव कुगतिको प्राप्त होते हैं। जीव कर्मके कारण अपने स्वरूप-ज्ञानसे अंध है; उसे ज्ञानकी खबर नहीं है। एक नामके लिए-मेरी नाक रहे तो अच्छा-ऐसी कल्पनाके कारण जीव अपनी शूरवीरता दिखानेके लिये लड़ाईमें उतरता है-पर नाककी तो राख हो जानेवाली है। देह कैसी है ! रेतके घर जैसी । स्मशानकी मढ़ी जैसी। पर्वतकी गुफाके समान देहमें अंधेरा है। चमडीके कारण देह ऊपर ऊपरसे सुंदर मालूम होती है। देह अवगुणका घर तथा माया और मैलके रहनेका स्थान है । देहमें प्रेम रखनेके कारण जीव भटका है । वह देह अनित्य है; बदफेलकी खान है। उसमें मोह रखनेसे जीव चार गतियोंमें भटकता है। किस तरह भटकता है ! घाणीके बैलकी तरह । आँखपर पट्टी बाँध लेता है, चलनेके मार्गमें उसे तंग होकर चलना पड़ता है, छूटनेकी इच्छा होनेपर भी वह छूट नहीं सकता, भूखसे पीड़ित होनेपर भी वह कह नहीं सकता, श्वासोच्छ्वास वह निराकुलतासे ले नहीं सकता । उसकी तरह जीव भी पराधीन है। जो संसारमें प्रीति करता है, वह इस प्रकारके दुःख सहन करता है। धुंवे जैसे कपड़े पहिनकर वे आवम्बर रचते हैं, परन्तु वे धुवेकी तरह नाश हो जानेवाले हैं। आत्माका शान मायाके कारण दबा हुआ रहता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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