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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ; परमार्थसे वह शुद्ध कर्ता कहा जाता है। प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानीको खपा दिया है, इसलिये. वह शुद्ध व्यवहारका कर्ता है। समकितीको अशुद्ध व्यवहार दूर करना है । समकिती परमार्थसे शुद्ध. कर्ता है। नयके अनेक प्रकार हैं, परन्तु. जिस. प्रकारसे आत्मा ऊँची आवे, पुरुषार्थ वर्धमान हो, उसी प्रकार विचारना चाहिये । प्रत्येक कार्य करते हुए अपनी भूलके ऊपर लक्ष रखना चाहिये । एक यदि सम्यक् उपयोग हो तो अपनेको अनुभव हो जाय कि कैसी अनुभव-दशा प्रगट होती है ! सत्संग हो तो समस्त गुण सहजमें ही हो जाय । दया, सत्य, अदत्तादान, ब्रह्मचर्य, परिग्रह-मर्यादा आदि अहंकाररहित करने चाहिये । लोगोंको बतानेके लिये कुछ भी करना नहीं चाहिये । मनुष्यभव मिला है, और सदाचारका सेवन न करे, तो फिर पीछे पछताना होगा। मनुष्यभवमें सत्पुरुषके वचनके सुननेका-विचार करनेका-संयोग मिला है। .. सत्य बोलना, यह कुछ मुश्किल नहीं-बिलकुल सहज है। जो व्यापार आदि सत्यसे होते हों उन्हें ही करना चाहिये । यदि छह महीनेतक इस तरह आचरण किया जाय तो फिर सत्यका बोलना संरल हो जाता है। सत्य बोलनेसे, कदाचित् प्रथम तो थोड़े समयतक थोड़ा नुकसान भी हो सकता है, परन्तु पीछेसे अनंत गुणकी धारक आत्मा जो तमाम लुटी जा रही है, वह लुटती हुई बंद हो जाती है। सत्य, बोलनेसे धीमे धीमे सहज हो जाता है; और यह होनेके पश्चात् व्रत लेना चाहियेअभ्यास रखना चाहिये, क्योंकि उत्कृष्ट परिणामवाली आत्मा कोई विरली ही होती है। जीवने यदि अलौकिक भयंसे भय प्राप्त किया हो, तो उससे कुछ भी नहीं होता । लोक चाहे जैसे बोले उसकी परवा न करते हुए, जिससे आत्म-हित हो उस सदाचरणका सेवन करना चाहिये । ज्ञान जो काम करता है वह अद्भुत है। सत्पुरुषके वचनके बिना विचार नहीं आता । विचारके बिना वैराग्य नहीं आता-वैराग्यके बिना ज्ञान नहीं आता। इस कारण सत्पुरुषके वचनोंका बारंबार विचार करना चाहिये। वास्तविक आशंका दूर हो जाय तो बहुत-सी निर्जरा हो जाती है । जीव यदि सत्पुरुषका मार्ग जानता हो, उसका उसे बारंबार बोध होता हो तो बहुत फल हो । . जो सात अथवा अनंत नय हैं, वे सब एक आत्मार्थके लिये हैं, और आत्मार्थ ही एक सच्चा नय है । नयका परमार्थ जीवमेंसे निकल जाय तो फल होता है-अन्तमें उपशम आवे तो फल होता है; नहीं तो जीवको नयका ज्ञान जालरूप ही हो जाता है, और वह फिर अहंकार बढ़नेका स्थान होता है। सत्पुरुषके आश्रयसे वह जाल दूर हो जाता है। . . व्याख्यानमें कोई भंगजाल, राग (स्वर) निकालकर सुनाता है, परन्तु उसमें आत्मार्थ नहीं। यदि सत्पुरुषके आश्रयसे कषाय आदि मंद करो और सदाचारका सेवन करके अहंकार रहित हो जाओ, तो तुम्हारा और दूसरेका हित हो सकता है। दंभरहित आत्मार्थसे सदाचार सेवन करना चाहिये, जिससे उपकार हो। खारी जमीन हो और उसमें वर्षा हो तो वह किस काममें आ सकती है ! उसी तरह जबतक ऐसी स्थिति हो कि आत्मामें उपदेश प्रवेश न करे, तबतक वह किस कामका ! जबतक उपदेश-वार्ता आत्मामें प्रवेश न करे तबतक उसे फिर फिर मनन करना और विचारना चाहिये - उसका पीछा छोड़ना:
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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