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________________ भीमद् राजचन्द्र किसीको हो तो मिथ्यात्व और माने वह छहा-सातवाँ गुणस्थानक, तो उसका क्या करना ! चौथे गुणस्थानकी स्थिति कैसी होती है ! गणधरके समान मोक्षमार्गकी परम प्रतीति आवे ( ऐसी)। पार होनेका अभिलाषी हो वह सिर काटकर देते हुए पीछे नहीं हटता। जो शिथिल हो वह जो थोड़े कुलक्षण हों उन्हें भी नहीं छोड़ सकता । वीतराग भी जिस वचनको कहते हुए डरे हैं, उसे अज्ञानी स्वच्छंदतासे कहता है, तो वह फिर कैसे छूटेगा ! महावीरस्वामीके दीक्षाके वरघोड़ेकी बातका स्वरूप यदि विचारें तो वैराग्य हो। यह बात अद्भुत है। वे भगवान् अप्रमादी थे। उन्हें चारित्र रहता था, परन्तु जिस समय उन्होंने बाह्य चारित्र ग्रहण किया, उस समय वे मोक्ष गये । अविरति शिष्य हो तो उसका आदर सत्कार कैसे किया जाय ! कोई राग-द्वेष नाश करनेके लिये निकले, और उसे तो काममें ही ले लिया, तो राग-द्वेष कहाँसे दूर हो सकते हैं ! जिनभगवान्के आगमका जो समागम हुआ हो वह अपने क्षयोपशमके अनुसार होता है, परन्तु वह सद्गुरुके अनुसार नहीं होता। सद्गुरुका योग मिलनेपर जो उसकी आज्ञानुसार चला, उसका राग-द्वेष सचमुच दूर हो गया। गंभीर रोगके दूर करनेके लिये असली दवा तुरत ही फल देती है । ज्वर तो एक ही दो दिनमें दूर हो जाता है। मार्ग और उन्मार्गकी परीक्षा होनी चाहिये । 'पार होनेका अभिलाषी' इस शब्दका प्रयोग करो तो अभव्यका प्रश्न ही नहीं उठता । अभिलाषीमें भी भेद हैं। प्रश्नः-सत्पुरुषकी किस तरह परीक्षा होती है ! उत्तरः-सत्पुरुष अपने लक्षणोंसे पहिचाने जाते हैं । सत्पुरुषोंके लक्षणः-उनकी वाणीमें पूर्वापर अविरोध होता है; वे क्रोधका जो उपाय बतावें, उससे क्रोध दूर हो जाता है। मानका जो उपाय बतायें, उससे मान दूर हो जाता है । ज्ञानीकी वाणी परमार्थरूप ही होती है । वह अपूर्व है। ज्ञानीकी वाणी दूसरे अज्ञानीकी वाणीके ऊपर ऊपर ही होती है। जबतक ज्ञानीकी वाणी सुनी नहीं, तबतक सूत्र भी नीरस जैसे मालूम होते हैं । सद्गुरु और असद्गुरुकी परीक्षा, सोने और पीतलकी कंठीकी परीक्षाकी तरह होनी चाहिये। यदि पार होनेका अभिलाषी हो, और सद्गुरु मिल जाय तो कर्म दूर हो जाते हैं । सद्गुरु कर्म दूर करनेका कारण है । कर्म बाँधनेके कारण मिलें तो कर्म बंधते हैं, और कर्म दूर होनेके कारण मिलें तो कर्म दूर होते हैं। जो पार होनेका अभिलाषी हो वह भवस्थिति आदिके आलंबनको मिथ्या कहता है। पार होनेका अभिलाषी किसे कहा जाय ! जिस पदार्थको ज्ञानी जहर कहें, उसे जहर समझकर छोर दे, और ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करे, उसे पार होनेका अभिलाषी कहा जाता है। उपदेश सुननेके लिये, सुननेके अभिलाषीने कर्मरूप गुदड़िया ओद रक्खी है, उससे उपदेशरूप छकड़ी नहीं लगती । तथा जो पार होनेका अभिलाषी है उसने धोतीरूप कर्म ओद रखे हैं, इससे उसपर उपदेशरूप लकड़ी आदिमें ही असर करती है। शास्त्रमें अभव्यके तारनेसे पार हो जाय, ऐसा नहीं कहा । चौभंगीमें यह अर्थ नहीं है । दूँढियाओंके घरमशी नामक मुनिने इसकी टीका की है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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