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________________ ५५९ उपदेश छाया चारित्र' अर्थात् आत्माका स्थिर होना। आत्मा और सद्गुरुको एक ही समझना चाहिये। यह बात विचारसे ग्रहण होती है । वह विचार यह कि देह अथवा देहके समान दूसरा भाव सद्गुरु नहीं, परन्तु सद्गुरुकी आत्मा ही सद्गुरु है। जिसने आत्मस्वरूप लक्षणसे, गुणसे, और वेदनसे प्रगट अनुभव किया है, और वही परिणाम जिसकी आत्माका हो गया है, वह आत्मा और सद्गुरु एक ही हैं, ऐसा समझना चाहिये । पूर्वमें जो अज्ञान इकडा किया है, वह दूर हो तो ज्ञानीकी अपूर्व वाणी समझमें आये। मिथ्यावासना-धर्मके मिथ्या स्वरूपका सच्चा समझना । तप आदि भी ज्ञानकी कसौटी है । साता-शील आचरण रक्खा हो और असाता आ जाय तो ज्ञान मंद हो जाता है। विचार बिना इन्द्रियाँ वश नहीं होती । अविचारसे इन्द्रियाँ दौड़ती हैं । निवृत्ति के लिये उपवास करना बताया है। हालमें बहुतसे अज्ञानी जीव उपवास करके दुकानपर बैठते हैं, और उसे पौषध बताते हैं। ऐसे कल्पित पौषध जीवने अनादिकालसे किये हैं। उन सबको ज्ञानियोंने निष्फल ठहराया है। जब स्त्री, घर, बाल-बच्चे भूल जाय, उसी समय सामायिक किया कहा जाता है । व्यवहार-सामायिक बहुत निषेध करने योग्य नहीं; यद्यपि जीवने व्यवहाररूप सामायिकको एकदम जड़ बना डाला है। उसे करनेवाले जीवोंको खबर भी नहीं होती कि इससे कल्याण क्या होगा ? पहिले सम्यक्त्व चाहिये । जिस वचनके सुननेसे आत्मा स्थिर हो उस सत्पुरुषका वचन श्रवण हो तो पीछेसे सम्यक्त्व होता है। सामान्य विचारको लेकर इन्द्रियाँ वश करनेके लिये छह कायका आरंभ कायासे न करते हुए जब वृत्ति निर्मल होती है, तब सामायिक हो सकता है। भवस्थिति, पंचमकालमें मोक्षका अभाव आदि शंकाओंसे जीवने बाह्य वृत्ति कर रक्खी है । परन्तु यदि जीव ऐसा पुरुषार्थ करे, और पंचमकाल मोक्ष होते समय हाथ पकड़ने आवे, तो उसका उपाय हम कर लेंगे । वह उपाय कोई हाथी नहीं, अथवा जाज्वल्यमान अग्नि नहीं । मुफ्तमें ही जीवको भड़का रक्खा है । जीवको पुरुषार्थ करना नहीं, और उसको लेकर बहाना ढूँढना है । इसे अपना ही दोष समझना चाहिये । समताकी वैराग्यकी बातें सुननी और विचारनी चाहिये । बाह्य बातोंको जैसे बने वैसे छोड़ देना चाहिये । जीव पार होनेका अभिलाषी हो, और सद्गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करे तो समस्त वासनायें दूर हो जाय । सद्गुरुकी आज्ञामें सब साधन समा गये हैं । जो जीव पार होनेके अभिलाषी होते हैं, उनमें सब वासनाओंका नाश हो जाता है । जैसे कोई सौ पचास कोस दूर हो, तो वह दो चार दिनमें घर आकर मिल सकता है, परंतु जो लाखों कोस दूर हो वह एकदम घर आकर कैसे मिल सकता है ! उसी तरह यह जीव कल्याणमार्गसे थोड़ा दूर हो तो वह कभी कल्याण प्राप्त कर सकता है, परन्तु यदि वह एकदम ही उल्टे रास्ते हो तो कहाँसे पार हो सकता है! ... देह आदिका अभाव होना-मूर्छाका नाश होना-ही मुक्ति है। जिसका एक भव बाकी रहा हो उसे देहकी इतनी अधिक चिंता उचित नहीं । अज्ञान दूर होनेके पश्चात् एक भवकी कुछ कीमत नहीं। लाखों भव चले गये तो फिर एक भव तो किस.हिसाबमें है!.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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