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________________ उपदेश-छाया छोड़कर सत्पुरुषोंके वचनोंको आत्मामें परिणमन करे, तो सब दोष दूर हो जॉय । जीवको अपनापन लाना ही न चाहिये। बड़ाई और महत्ता छोड़े बिना आत्मामें सम्यक्त्वके मार्गका परिणाम होना कठिन है। __ वेदांतशास्त्र वर्तमानमें स्वच्छंदतासे पढ़ने में आते हैं, और उससे शुष्कता जैसा हो जाता है। षड्दर्शनमें झगड़ा नहीं, परन्तु आत्माको केवल मुक्त-दृष्टिसे देखनपर तीर्थकरने लंबा विचार किया है। मूल लक्ष होनेसे जो जो वक्ताओं (सत्पुरुषों) ने कहा है, वह यथार्थ है, ऐसा मालूम होगा। आत्माको कभी भी विकार उत्पन्न न हो, तथा राग-द्वेष परिणाम न हो, उसी समय केवलज्ञान कहा जाता है । षट्दर्शनवालोंने जो विचार किया है, उससे आत्माका उन्हें भान होता है-तारतम्य भावमें भेद पड़ता है । षड्दर्शनको अपनी समझसे बैठावें तो कभी भी बैठे नहीं । उसका बैठना सत्पुरुषके आश्रयसे ही होता है। जिसने आत्माका असंग निक्रिय विचार किया हो, उसे भ्रान्ति होती नहीं—संशय होता नहीं, आत्माके अस्तित्वके संबंधमें शंका रहती नहीं। प्रश्नः-सम्यक्त्व कैसे मालूम होता है ! उत्तरः-जब भीतरसे दशा बदले, तब सम्यक्त्वकी खबर स्वयं ही पड़ती है । सद्देव अर्थात् राग-द्वेष और अज्ञान जिसके क्षय हो गये हैं। सद्गुरु कौन कहा जाता है ! मिथ्यात्वकी प्रन्थि जिसकी छिन्न हो गई है । सद्गुरु अर्थात् निग्रंथ । सद्धर्म अर्थात् ज्ञानी-पुरुषोंद्वारा बोध किया हुआ धर्म । इन तीनों तत्त्वोंको यथार्थ रीतिसे जाननेपर सम्यक्त्व हुआ समझा जाना चाहिये । ___ अज्ञान दूर करनेके लिये कारण ( साधन ) बताये हैं । ज्ञानका स्वरूप जिस समय जान ले उस समय मोक्ष हो जाय । परम वैदरूपी सद्गुरु मिले और उपदेशरूपी दवा आत्मामें लगे तो रोग दूर हो । परन्तु उस दवाको जीव यदि अन्तरमें न उतारे, तो उसका रोग कभी भी दूर होता नहीं । जीव सच्चे सच्चे साधनोंको करता नहीं। जैसे समस्त कुटुम्बको पहिचानना हो तो पहिले एक आदमीको जाननेसे सबकी पहिचान हो जाती है, उसी तरह पहिले सम्यक्त्वकी पहिचान हो तो आत्माके समस्त गुणोंरूपी कुटुम्बकी पहिचान हो जाती है । सम्यक्त्व सर्वोत्कृष्ट साधन बताया है । बाह्य वृत्तियोंको कम करके जीव अंतर्परिणाम करे तो सम्यक्त्वका मार्ग आवे । चलते चलते ही गाँव आता है, बिना चले गाँव नहीं आ जाता । जीवको यथार्थ सत्पुरुषोंकी प्रतीति हुई नहीं। बहिरात्मामेंसे अन्तरात्मा होनेके पश्चात् परमात्मभाव प्राप्त होना चाहिये । जैसे दूध और पानी जुदा जुदा हैं, उसी तरह सत्पुरुषके आश्रयसे-प्रतीतिसे—देह और आत्मा जुदा जुदा हैं, ऐसा भान होता है । अन्तरमें अपने आत्मानुभवरूपसे, जैसे दूध और पानी जुदे जुदे होते हैं, उसी तरह देह और आत्मा जब भिन्न मालूम हों, उस समय परमात्मभाव प्राप्त होता है । जिसे आत्माका विचाररूपी ध्यान है-सतत निरंतर ध्यान है, जिसे आत्मा स्वप्नमें भी जुदा ही भासित होती है, जिसे किसी भी समय आत्माकी भ्रान्ति होती ही नहीं, उसे ही परमात्मभाव होता है। अन्तरात्मा निरन्तर कषाय आदि दूर करनेके लिये पुरुषार्थ करती है । चौदहवें गुणस्थानतक यह विचाररूपी किया रहती है। जिसे वैराग्य-उपशम रहता हो, उसे ही विचारवान कहते हैं । आत्मायें मुक्त
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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