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________________ ६४३] उपदेश-छाया बंध अनेक अपेक्षाओंसे होता है। परन्तु मूल प्रकृतियाँ आठ हैं। वे कर्मकी ऑटीको उधेड़नेके लिये आठ प्रकारकी कही हैं। आयु कर्म एक ही भवका बँधता है। अधिक भवको आयु बँधती नहीं । यदि अधिक भवकी आयु बंधे तो किसीको भी केवलज्ञान उत्पन्न न हो। ज्ञानी-पुरुष समतासे कल्याणका जो स्वरूप बताता है, वह उपकारके लिये ही बताता है । ज्ञानी-पुरुष मार्ग में भूले भटके हुए जीवको सीधा रास्ता बताते हैं। जो ज्ञानीके मार्गसे चले उसका कल्याण हो जाय । ज्ञानीके विरह होनेके पश्चात् बहुत काल चला जानेसे अर्थात् अंधकार हो जानेसे अज्ञानकी प्रवृत्ति हो जाती है, और ज्ञानी-पुरुषोंके वचन समझमें नहीं आते । इससे लोगोंको उल्टा ही भासित होता है । समझमें न आनेसे लोग गच्छके भेद बना लेते हैं । गच्छके भेद ज्ञानियोंने बनाये नहीं । अज्ञानी मार्गका लोप करता है। ज्ञानी हो तो मार्गका उद्योत करता है । अज्ञानी ज्ञानीके सामने होते हैं। मार्गके सन्मुख होना चाहिये । बाल और अज्ञानी जीव छोटी छोटी बातोंमें भेद बना लेते हैं। तिलक और मुँहपत्ती वगैरहके आग्रहमें कल्याण नहीं । अज्ञानीको मतभेद करते हुए देर लगती नहीं । ज्ञानी-पुरुष रूदि-मार्गके बदले शुद्ध-मार्गका प्ररूपण करते हों तो ही जीवको जुदा भासित होता है, और वह समझता है कि यह अपना धर्म नहीं । जो जीव कदाग्रहरहित हो, वह शुद्ध मार्गका आदर करता है । विचारवानोंको तो कल्याणका मार्ग एक ही होता है। अज्ञान मार्गके अनन्त भेद हैं । जैसे अपना लड़का कुबड़ा हो और दूसरेका लड़का अतिरूपवान हो, परन्तु प्रेम अपने लड़केपर ही होता है, और वही अच्छा भी लगता है; उसी तरह जो कुल-धर्म अपने आपने स्वीकार किया है, वह चाहे कैसा भी दूषणयुक्त हो, तो भी वही सच्चा लगता है । वैष्णव, बौद्ध, श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन आदि चाहे कोई भी हो, परन्तु जो कदाग्रहरहित भावसे शुद्ध समतासे आवरणोंको घटावेगा उसीका कल्याण होगा। (कायाकी) सामायिक कायाके रोगको रोकती है; आत्माके निर्मल करनेके लिये कायाके योगको रोकना चाहिये । रोकनेसे परिणाममें कल्याण होता है। कायाकी सामायिक करनेकी अपेक्षा एकबार तो आत्माकी सामायिक करो । ज्ञानी-पुरुषके वचन सुन सुनकर गाँठ बाँधो, तो आत्माकी सामायिक होगी। मोक्षका उपाय अनुभवगोचर है । जैसे अभ्यास करते करते आगे बढ़ते हैं, वैसे ही मोक्षके लिये भी समझना चाहिये। जब आत्मा कोई भी क्रिया न करे तब अबंध कहा जाता है। पुरुषार्थ करे तो कर्मसे मुक्त हो । अनन्तकालके कर्म हों और यदि जीव यथार्थ पुरुषार्थ करे, तो कर्म यह नहीं कहता कि मैं नहीं जाता। दो घड़ीमें अनन्त कर्म नाश हो जाते हैं । आत्माकी पहिचान हो तो कोका नाश हो जाय । प्रश्नः-सम्यक्त्व किससे प्रगट होता है ! ..उत्तरः-आत्माका यथार्थ लक्ष हो उससे । सम्यक्त्व दो तरहका है:-१ व्यवहार और २
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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