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________________ ६४३] उपदेश-छाया सवृत्तियोंके उत्पन्न होनेके लिये जो जो कारण-साधन-बताये होते हैं, उन्हें न करनेको ज्ञानी कभी कहते ही नहीं । जैसे रात्रिमें भोजन करना हिंसाका कारण मालूम होता है, इसलिये ज्ञानी कभी भी आज्ञा नहीं करते कि तू रात्रिमें भोजन कर । परन्तु जिस जिस अहंभावसे आचरण किया हो, और रात्रिभाजनसे ही अथवा ' इस अमुकसे ही मोक्ष होगी, अथवा इसमें ही मोक्ष है ' ऐसा दुराग्रहसे मान्य किया हो, तो वैसे दुराग्रहको छुड़ानेके लिये ज्ञानी-पुरुष कहते हैं कि ' इसे छोड़ दे; ज्ञानी-पुरुषोंकी आज्ञासे वैसा ( रात्रिभोजन-त्याग आदि ) कर;' और वैसा करेगा तो कल्याण हो जायगा । अनादि कालसे दिनमें और रातमें भोजन किया है, परन्तु जीवको मोक्ष हुई नहीं! इस कालमें आराधकताके कारण घटते जाते हैं, और विराधकताके लक्षण बढ़ते जाते हैं। केशीस्वामी बड़े थे, और पार्श्वनाथ स्वामीके शिष्य थे, तो भी उन्होंने पाँच महाव्रत स्वीकार किये थे। केशीस्वामी और गौतमस्वामी महाविचारवान थे, परन्तु केशीस्वामीने यह नहीं कहा कि 'मैं दीक्षामें बड़ा हूँ, इसलिये तुम मेरेसे चारित्र ग्रहण करो' । विचारवान और सरल जीवको, जिसे तुरत ही कल्याणयुक्त हो जाना है, इस प्रकारकी बातका आग्रह होता नहीं। ___कोई साधु जिसने अज्ञान-अवस्थापूर्वक आचार्यपनेसे उपदेश किया हो, और पीछेसे उसे ज्ञानी-पुरुषका समागम होनेपर, वह ज्ञानी-पुरुष यदि साधुको आज्ञा करे कि जिस स्थानमें तूने आचार्यपनेसे उपदेश किया हो, वहाँ जाकर सबसे पीछे एक कोनेमें बैठकर सब लोगोंसे ऐसा कह किं 'मैंने अज्ञानभावसे उपदेश दिया है, इसलिये तुम लोग भूल खाना नहीं;' तो साधुको उस तरह किये बिना छुटकारा नहीं है । यदि वह साधु यह कहे कि ' मेरेसे ऐसा नहीं हो सकता। इसके बदले यदि आप कहो तो मैं पहाड़के ऊपरसे गिर जाऊँ, अथवा अन्य जो कुछ कहो सो करूँ परन्तु वहाँ तो मैं नहीं जा सकता'-तो ज्ञानी कहता है कि 'कदाचित् तू लाख बार भी पर्वतके ऊपरसे गिर जाय तो भी वह किसी कामका नहीं है । यहाँ तो यदि वैसा करेगा तो ही मोक्षकी प्राप्ति होगी। वैसा किये बिना मोक्ष नहीं है । इसलिये यदि तू जाकर क्षमा माँगे तो ही तेरा कल्याण हो सकता है । ... गौतमस्वामी चार ज्ञानके धारक थे । आनन्द श्रावक उनके पास गया ।आनन्द श्रावकने कहा कि मुझे ज्ञान उत्पन्न हो गया है। उत्तरमें गौतमस्वामीने कहा कि 'नहीं, नहीं, इतना सब हो नहीं सकता, इसलिये तुम क्षमापना लो'। उस समय आनन्द श्रावकने विचार किया ये मेरे गुरु हैं; संभव है, इस समय ये भूल करते हों, तो भी आप भूल करते हो', यह कहना योग्य नहीं। ये गुरु हैं, इसलिये इनसे शान्तिसे ही बोलना ठीक है । यह सोचकर आनन्द श्रावकने कहा कि महाराज ! सतवचनका 'मिच्छामि दुकडं ' अथवा असतवचनका • मिच्छामि दुकडं ' ! गौतमने कहा कि असदूतवचनका ही 'मिच्छामि दुबडं ' होता है। इसपर. आनन्द श्रावकने कहा कि • महाराज ! मैं 'मिच्छामि दुकडं ' लेने योग्य नहीं हूँ'। इतनेमें गौतमस्वामी वहाँसे चले गये और उन्होंने जाकर महावीरस्वामीसे पूँछा । यधपि गौतमस्वामी स्वयं उसका समाधान कर सकते थे, परन्तु गुरुके मौजूद रहते हुए वैसा करना ठीक नहीं, इस कारण उन्होंने महावीरस्वामाके पास जाकर यह
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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