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________________ ५२८ श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ ज्ञानीको ज्ञान-दृष्टिसे-अंतर्दृष्टिसे-देखनेके पश्चात् स्त्रीको 'देखकर राग उत्पन्न होता नहीं । क्योंकि ज्ञानीका स्वरूप विषय-सुखकी कल्पनासे जुदा है । जिसने अनन्त सुखको जान लिया हो उसे राग होता नहीं, और जिसे राग होता नहीं, उसीने ज्ञानीको देखा है; और उसीको ज्ञानी-पुरुषका दर्शन करनेके पश्चात् स्त्रीका सजीवन शरीर अजीवनरूपसे भासित हुए बिना रहता नहीं। क्योंकि उसने ज्ञानीके वचनोंको यथार्थ रीतिसे सत्य जाना है। जिसने ज्ञानीके समीप, देह और आत्माको भिन्न-पृथक् पृथक्-जान लिया है, उसे देह और आत्मा भिन्न भिन्न भासित होते हैं। और उससे खीका शरीर और आत्मा जुदा जुदा मालूम होते हैं । उसने स्त्रीके शरीरको मास, मिट्टी, हडी आदिका पुतला ही समझा है, इसलिये उसे उसमें राग उत्पन्न होता नहीं । समस्त शरीरका ऊपर नीचेका बल कमरके ऊपर ही रहता है। जिसकी कमर टूट गई है, उसका सब बल नष्ट हो गया है। विषय आदि जीवकी तृष्णा है । संसाररूपी शरीरका बल इस विषय आदिरूप कमरके ऊपर ही रक्खा हुआ है। ज्ञानी-पुरुषके बोधके लगनेसे विषय आदिरूप कमरका भंग हो जाता है, अर्थात् विषय आदिकी तुच्छता मालूम होने लगती है; और उस प्रकारसे संसारका बल घटता है, अर्थात् ज्ञानी-पुरुषके बोधमें ऐसी सामर्थ्य है । महावीरस्वामीको संगम नामके देवताने बहुत ही ऐसे ऐसे परीषह दिये कि जिनमें प्राण-त्याग होते हुए भी देर न लगे । वहाँ कैसी अद्भुत समता रक्खी ! उस समय उन्होंने विचार किया कि जिसके दर्शन करनेसे कल्याण होता हो, नाम स्मरण करनेसे कल्याण होता हो, उसीके समागममें आकर इस जीवको अनन्त संसारकी वृद्धिका कारण होता है । ऐसी अनुकंपा आनेसे आँखमें आँसू आ गये । कैसी अद्भुत समता है ! दूसरेकी दया किम तरह अंकुरित हो निकली थी ! उस समय मोहराजने यदि जरा ही धक्का लगाया होता तो तुरत ही तीर्थकरपना संभव न रहता; और कुछ नहीं तो देवता तो भाग ही जाता । जिसने मोहनीयके मलका मूलसे नाश कर दिया ह, अर्थात् मोहको जीत लिया है, वह मोह कैसे कर सकता है ! श्रीमहास्वीरस्वामीके पास गोशालाने आकर दो साधुओंको जला डाला, उस समय उन्होंने यदि जरा भी सामर्थ्यपूर्वक साधुओंकी रक्षा की होती, तो उन्हें तीर्थकरपनेको फिरसे करना पड़ता । परन्तु जिसे 'मैं गुरु हूँ, यह मेरा शिष्य है' ऐसी भावना ही नहीं है, उसे वैसा कुछ भी करना नहीं पड़तो। उन्होंने ऐसा विचार किया कि 'मैं शरीरके रक्षणका दातार नहीं, केवल भाव-उपदेशका ही दातार हूँ। यदि मैं इनकी रक्षा करूँ तो मुझे गोशाल'की भी रक्षा करनी चाहिये, अथवा समस्त जगत्की ही रक्षा करनी उचित है' । अर्थात् तीर्थकर ऐसा ममत्व करते ही नहीं। वेदान्तमें इस कालमें चरमशरीरी होना कहा है । जिनभगवान्के मतानुसार इस कालमें एकावतारी जीव होते हैं । यह कोई थोड़ी बात नहीं है; क्योंकि इसके पश्चात् कुछ मोक्ष होनेमें अधिक देर लगती नहीं । कुछ थोड़ा ही बाकी रह जाता है, और जो रहता है वह फिर सहज ही दूर हो जाता है। ऐसे पुरुषकी दशा-वृत्तियों-कैसी होती हैं ! अनादिकी बहुतसी वृत्तियाँ शान्त हुई रहती हैं; और इतनी अधिक शान्ति हुई रहती है कि राग-द्वेष सब नाश होने योग्य हो जाते है-उपशान्त हो जाते हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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