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________________ उपदेश-छाया ५२३ . सिद्धांतोंके नियम इतने अधिक सख्त है, फिर भी यति लोगोंको उससे विरुद्ध आचरण करते हुए देखते हैं । उदाहरणके लिये कहा गया है कि साधुओंको तेल डालना नहीं चाहिये फिर भी वे लोग डालते हैं । इसमें कुछ ज्ञानीकी वाणीका दोष नहीं है, किन्तु जीवकी समझनेकी शक्तिका ही दोष है। जीवमें सद्बुद्धि न हो तो प्रत्यक्ष योगमें भी उसको उल्टा मालूम होता है, और यदि सद्बुद्धि हो तो सीधा भासित होता है। '. प्राप्त = ज्ञानप्राप्त पुरुष । आप्त = विश्वास करने योग्य पुरुष । - मुमुक्षुमात्रको सम्यग्दृष्टि जीव नहीं समझ लेना चाहिये, जीवके भूलके स्थानक अनेक हैं। इसलिये विशेष विशेष जागति रखनी चाहिये; व्याकुल होना नहीं चाहिये; मंदता न करनी चाहिये; पुरुषार्थ-धर्मको वर्धमान करना चाहिये । जीवको सत्पुरुषका संयोग मिलना कठिन है । अपना शिष्य यदि दूसरे धर्ममें चला जाय तो अपारमार्थिक गुरुको वर चढ़ आता है। पारमार्थिक गुरुको — यह मेरा शिष्य है' यह भाव होता नहीं । कोई कुगुरु-आश्रित जीव बोधके श्रवण करनेके लिये कभी किसी सद्गुरुके पास गया हो और फिर वह अपने उसी कुगुरुके पास आवे, तो वह कुगुरु उस जीवको अनेक विचित्र विकल्प बैठा देता है, 'जिससे वह जीव फिरसे सद्गुरुके पास जाता नहीं । उस बिचारे जीवको तो सत्-असत् वाणीकी परीक्षा भी नहीं, इसलिये वह ठगा जाता है, और सन्मार्गसे च्युत हो जाता है। (३) रालज, श्रावण वदी ६ शनि. १९५२ - भक्ति यह सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । भक्तिसे अहंकार दूर होता है , स्वच्छंद नाश होता है, और -सीधे मार्गमें गमन होता है, अन्य विकल्प दूर होते हैं-ऐसा यह भक्तिमार्ग श्रेष्ठ है। . प्रश्नः-आत्मा किसके अनुभवमें आई कही जानी चाहिये ! उत्तरः-जिस तरह तलवारको म्यानमेंसे निकालनेपर वह उससे भिन्न मालूम होती है, उसी तरह जिसे आत्मा देहसे स्पष्ट भिन्न मालूम होती है, उसे आत्माका अनुभव दुआ कहा जाता है। ___-जिस तरह दूध और पानी मिले हुए हैं, उसी तरह आत्मा और देह मिले हुए रहते हैं। दूध और पानी क्रिया करनेसे जब भिन्न भिन्न हो जाते हैं तब वे भिन्न कहे जाते हैं। उसी तरह आत्मा और देह क्रियासे भिन्न हो जानेपर भिन्न भिन्न कहे जाते हैं । जबतक दूध दूधकी और पानी पानीकी पर्यायको प्राप्त न कर ले तबतक क्रिया माननी चाहिये। यदि आत्माको जान लिया हो तो फिर एक पर्यायसे लगाकर समस्त निजस्वरूप तककी भ्रांति होती नहीं। अपना दोष कम हो, आवरण दूर हो, तो ही समझना चाहिये कि ज्ञानीके वचन सच्चे हैं । हमें भव्य अभव्यकी चिंता न रखते हुए, हालमें तो 'जिससे उपकार हो ऐसे लाभका धर्म-व्यापार करना चाहिये । ज्ञान उसे कहते हैं जो हर्ष-शोकके समयमें उपस्थित रहे; अर्थात् जिससे हर्ष-शोक न हों। सम्यग्दृष्टि हर्ष-शोक आदिके समागममें एकाकार होता नहीं। उसके अचेत परिणाम होते नहीं। अहान आकर खड़ा हुआ कि वह जानते ही उसे तुरत दबा देता है। बहुत ही जागृति होती है । भय अज्ञानका ही है। जैसे कोई सिंह चला आ रहा हो और उससे सिंहनीको भय लगता नहीं, किन्तु उसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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