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________________ - ५२२ श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ तुमने जाना है, तो फिर उन्हें असत् कहना, यह उपकारके बदले दोष करनेके बराबर ही गिना जायगा । फिर शास्त्रके लिखनेवाले भी विचारवान थे, इस कारण वे सिद्धांतके विषयमें जानते थे। सिद्धांत महावीरस्वामीके बहुत वर्ष पश्चात् लिखे गये हैं, इसलिये उन्हें असत् कहना. दोष गिना जायगा। ज्ञानीकी आज्ञासे चलनेवाले भद्रिक मुमुक्षु जीवको, यदि गुरुने 'ब्रह्मचर्यके पालने अर्थात् त्रियों आदिके समागममें न जानेकी' आज्ञा की हो, तो उस वचनपर दृढ़ विश्वास कर, वह भी उस उस स्थानकमें नहीं जाता; जब किं जिसे मात्र आध्यात्मिक शास्त्र आदि बाँचकर ही मुमुक्षता हो गई हो, उसे ऐसा अहंकार रहा करता है कि इसमें उसे जीतना ही क्या है !'-ऐसे ही पागलपनके कारण वह उन लियों आदिके समगममें जाता है । कदाचित् उस समागमसे एक-दो बार वह बच भी जाय, परन्तु पीछेसे उस पदार्थकी ओर दृष्टि करते हुए यह ठीक है,' ऐसे करते करते उसे उसमें आनन्द आने लगता है, और उससे वह स्त्रियोंका सेवन करने लगता है। . भोलाभाला जीव तो ज्ञानीकी आज्ञानुसार ही आचरण करता है; अर्थात् वह दूसरे विकल्पोंको न करते हुए वैसे प्रसंगमें कभी भी नहीं जाता । इस प्रकार, जिस जीवको, ' इस स्थानकमें जाना योग्य नहीं ' ऐसे ज्ञानीके वचनोंका दृढ़ विश्वास है, वह ब्रह्मचर्य व्रतमें रह सकता है । अर्थात् वह इस अकायमें प्रवृत्त नहीं होता; जब कि जिसे ज्ञानीकी आज्ञाकारिता नहीं, ऐसे मात्र आध्यात्मिक शाख बाँचकर होनेवाले मुमुक्षु अहंकारमें फिरा करते हैं, और समझा करते हैं कि 'इसमें उसे जीतना ही क्या है!' ऐसी मान्यताको लेकर यह जीव ध्युत हो जाता है, और आगे बढ़ नहीं सकता । यह जो क्षेत्र है वह निवृत्तिवाला है, किन्तु जिसे निवृत्ति हुई हो उसे ही तो है। तथा जो सच्चा ज्ञानी है, उसके सिवाय दूसरा कोई अब्रह्मचर्यके वश न हो, यह केवल कथनमात्र है। जैसे, जिसे निवृत्ति नहीं हुई, उसे प्रथम तो ऐसा होता है कि 'यह क्षेत्र श्रेष्ठ है, यहाँ रहना योग्य है', परन्तु फिर ऐसे करते करते विशेष प्रेरणा होनेसे वृत्ति क्षेत्राकार हो जाती है। किन्तु ज्ञानीकी वृत्ति क्षेत्राकार नहीं होती, क्योंकि एक तो क्षेत्र निवृत्तिवाला है, और दूसरे उसने स्वयं भी निवृत्तिभाव प्राप्त किया है, इससे दोनों योग अनुकूल हैं। शुष्कज्ञानियोंको प्रथम तो ऐसा ही अभिमान रहा करता है कि इसमें जीतना ही क्या है ! परन्तु पीछेसे वह धीरे धीरे स्त्रियों आदि पदार्थोंमें फँस जाता है, जब कि सच्चे ज्ञानीको वैसा नहीं होता। हालमें सिद्धांतोंकी जो रचना देखनेमें आती है, उन्हीं अक्षरों में अनुक्रमसे तीर्थकरने उपदेश दिया हो, यह कोई बात नहीं है । परन्तु जैसे किसी समय किसीने वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथाके विषयमें पूछा तो उस समय तत्संबंधी बात कह बताई । फिर किसीने पूछा कि धर्मकथा कितने प्रकारकी है तो कहा कि चार प्रकारकी:-आक्षेपणी, विक्षेपणी, निर्वेदणी, संवेगणी । इस इस तरह जब बातें होती हों, तो उनके पास जो गणधर होते हैं, वे उन बातोंको ध्यानमें रख लेते हैं और अनुक्रमसे उनकी रचना करते हैं । जैसे यहाँ भी कोई मनुष्य कोई बात करनेसे ध्यानमें रखकर अनुकमसे.उसकी रचना करता है। बाकी तीर्थकर जितना कहें, उतना कुछ सबका सब उनके ध्यानमें नहीं रहता-केवल अभिप्राय ही ध्यानमें रहता है । तथा गणधर भी बुद्धिमान थे, इसलिये उन तीर्थकरोंद्वारा कहे हुए वाक्य कुछ उनमें नहीं आये, यह बात भी नहीं है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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