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________________ पत्र ६३६, ६३७] विविध पत्र मादि संग्रह-२९वाँ वर्ष छोटी उम्रमें मार्गका उद्धार करनेके संबंधमें आभिलाषा थी। उसके पश्चात् ज्ञान-दशाके आनेपर क्रमसे वह उपशम जैसी हो गई । परन्तु कोई कोई लोग परिचयमें आये, उन्हें कुछ विशेषता मालूम होनेसे उनका कुछ मूलमार्गपर लक्ष आया, और इस ओर तो सैकड़ों और हजारों मनुष्य समागममें आये, जिनमेंसे कुछ समझवाले तथा उपदेशकके प्रति आस्थावाले ऐसे सौ-एक मनुष्य निकलेंगे। इसके ऊपरसे यह देखने में आया कि लोग पार होनेकी इच्छा करनेवाले तो बहुत हैं, परन्तु उन्हें वैसा संयोग नहीं मिलता । यदि सच्चे सच्चे उपदेशक पुरुषका संयोग मिले तो बहुतसे जीव मूलमार्गको पा सकते हैं, और दया आदिका विशेष उद्योत होना संभव है। ऐसा मालूम होनेसे कुछ चित्तमें आता है कि यदि इस कार्यको कोई करे तो अच्छा है। परन्तु दृष्टि डालनेसे वसा को पुरुष ध्यानमें नहीं आता। इसलिये कुछ लिखनेवालेकी ओर ही दृष्टि आती है, परन्तु लिखनेवालेका जन्मसे ही लक्ष इस तरहका रहा है कि इस पदके समान एक भी जोखम-भरा पद नहीं है, और जहाँतक उस कार्यकी, अपनी जैसी चाहिये वैसी योग्यता न रहे, वहाँतक उसकी इच्छामात्र भी न करनी, और प्रायः अबतक उसी तरह प्रवृत्ति करनेमें आई है। मार्गका थोडा बहुत स्वरूप भी किसी किसीको समझाया है, फिर भी किसीको एक व्रत-पञ्चक्खाणतक-भी दिया नहीं; अथवा तुम मेरे शिष्य हो, और हम गुरु हैं, यह भेद प्रायः प्रदर्शित किया नहीं। कहनेका आभप्राय यह है कि सर्वसंग-परित्याग होनेपर उस कार्यकी प्रवृत्ति सहज-स्वभावसे उदयमें आवे तो करनी चाहिये, ऐसी ही मात्र कल्पना है । (२) उसका सच्चा सच्चा आग्रह नहीं है, मात्र अनुकंपा आदि तथा ज्ञान-प्रभाव रहता है, इससे कभी कभी वह वृत्ति उठती है, अथवा अल्पांशसे ही अंगमें वह वृत्ति है, फिर भी वह स्वाधीन है । हम समझते हैं कि यदि उस तरह सर्वसंग-परित्याग हो तो हजारों लोग उस मूलमार्गको प्राप्त करें। और हजारों लोग उस सन्मार्गका आराधन कर सद्गतिको पावें, ऐसा हमारेसे होना संभव है । हमारे संगमें त्याग करनेके लिये अनेक जीवोंकी वृत्ति हो, ऐसा अंगमें त्याग है। धर्म स्थापित करनेका मान बड़ा है । उसकी स्पृहासे भी कचित् ऐसी वृत्ति रह सकती है, परन्तु आत्माको अनेक बार देखनेपर उसकी संभवता, इस समयकी दशामें कम ही मालूम होती है। और वह कुछ कुछ सत्तामें रही होगी तो वह भी क्षीण हो जायगी, ऐसा अवश्य मालूम होता है। क्योंकि जैसी चाहिये वैसी योग्यताके बिना देह छूट जाय, वैसी दृढ़ कल्पना हो, तो भी मार्गका उपदेश करना नहीं, ऐसा आत्मनिश्चय नित्य रहता है। एक इस बलवान कारणसे ही परिग्रह आदिके त्याग करनेका विचार रहा करता है । मेरे मनमें ऐसा रहता है कि यदि वेदोक्त धर्मका प्रकाशन करना अथवा स्थापित करना हो तो मेरी दशा यथायोग्य है, परन्तु जिनोक्त धर्म स्थापित करना हो तो अभी इतनी योग्यता नहीं, तो भी विशेष योग्यता है, ऐसा मालूम होता है। ६३७ हे नाथ ! या तो धर्मोन्नति करनेरूप इच्छाका सहजभावसे समाधान हो, ऐसा हो जाय, अथवा वह इच्छा अवश्य कार्यरूप परिणत हो जाय।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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