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________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ६३६ जैनदर्शनमें जो केवलज्ञानका स्वरूप लिखा है, उसे उसी तरह समझाना मुश्किल होता है। फिर वर्तमानमें उस ज्ञानका उसीमें निषेध किया है, जिससे तत्संबंधी प्रयत्न करना भी सफल नहीं मालूम होता । जैन समागममें हमारा अधिक निवास दुआ है, तो किसी भी प्रकारसे उस मार्गका उद्धार हम जैसोंके द्वारा विशेषरूपसे हो सकता है, क्योंकि उसका स्वरूप विशेषरूपसे समझमें आया है, इत्यादि । वर्तमानमें जैनदर्शन इतनी अधिक अव्यवस्थित अथवा विपरीत स्थितिमें देखनेमें आता है कि उसमेंसे मानो जिनभगवान्का* x x x चला गया है, और लोग मार्ग प्ररूपित करते हैं । बाह्य माथापच्ची बहुत बढ़ा दी है, और अंतमार्गका ज्ञान प्रायः विच्छेद जैसा हो गया है। वेदोक्त मार्गमें तो दोसौ चारसौ वर्षोंसे कोई कोई महान् आचार्य हुए भी देखनेमें आते हैं, जिससे लाखों मनुष्योंको वेदोक्त पद्धतिकी जागृति हुई है, तथा साधारणरूपसे कोई कोई आचार्य अथवा उस मार्गके जाननेवाले श्रेष्ठ पुरुष इसी तरह होते रहते हैं। और जैनमार्गमें बहुत वर्षोंसे वैसा हुआ मालूम नहीं होता। जैनमार्गमें प्रजा भी बहुत थोड़ी ही बाकी रही है, और उसमें भी सैकड़ों भेद हैं। इतना ही नहीं, किन्तु मूलमार्गके सन्मुख होनेकी बात भी उनके कानमें नहीं पड़ती, और वह उपदेशकके भी लक्षमें नहीं-ऐसी स्थिति हो रही है । इस कारण चित्तमें ऐसा आया करता है कि जिससे उस मार्गका अधिक प्रचार हो तो वैसा करना, नहीं तो उसमें रहनेवाली समाजको मूललक्षरूपसे प्रेरित करना । यह काम बहुत कठिन है । तथा जैनमार्गको स्वयं चित्तमें उतारना तथा समझना कठिन है। उसे चित्तमें उतारते समय बहुतसे कारण मार्ग-प्रतिबन्धक हो जॉय, ऐसी स्थिति है । इसलिये वैसी प्रवृतिको करते हुए डर मालूम होता है । उसके साथ साथ यह भी होता है कि यदि यह कार्य इस कालमें हमारेसे कुछ भी बने तो बन सकता है, नहीं तो हालमें तो मूलमार्गके सन्मुख होनेके लिये किसी दूसरेका प्रयत्न काममें आवे, ऐसा मालूम नहीं होता। प्रायः करके मूलमार्ग दूसरे किसीके लक्षमें ही नहीं है । तथा उस हेतुके दृष्टांतपूर्वक उपदेश करनेमें परमश्रुत आदि गुण आवश्यक हैं । इसी तरह बहुतसे अंतरंग गुणोंकी भी आवश्यकता है । वे यहाँ मौजूद हैं, ऐसा हदरूपसे मालूम होता है। इस रीतिसे यदि मूलमार्गको प्रगटरूपमें लाना हो तो प्रगट करनेवालेको सर्वसंगका परित्याग करना योग्य है, क्योंकि उससे वास्तविक समर्थ उपकार होनेका समय आ सकता है । वर्तमान दशाको देखते हुए, सत्ताके कर्मोंपर दृष्टि डालते हुए, कुछ समय पश्चात् उसका उदयमें आना संभव है। हमें सहज-स्वरूप ज्ञान है, जिससे योग-साधनकी इतनी अपेक्षा न होनेसे उसमें प्रवृत्ति नहीं की; तथा वह सर्वसंग-परित्यागमें अथवा विशुद्ध देश-परित्यागमें साधन करने योग्य है । इससे लोगोंका बहुत उपकार होता है। यद्यपि वास्तविक उपकारका कारण तो आत्म-ज्ञानके बिना दूसरा कुछ नहीं है। हालमें दो वर्षतक तो वह योग-साधन विशेषरूपसे उदयमें आवे वैसा दिखाई नहीं देता । इस कारण इसके बादके समयकी ही कल्पना की जाती है, और तीनसे चार वर्ष उस मार्गमें व्यतीत करनेमें आवें, तो ३६३ वर्ष सर्वसंग-परित्यागी उपदेशकका समय आ सकता है, और लोगोंका कल्याण होना हो तो वह हो सकता है। * यहाँ अचार संहित है। अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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