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________________ २० किसीको दो उपयोग नहीं रहते, जब यह सिद्धांत है, तो आहार आदिकी प्रवृत्तिके समय उपयोगर्म रहता हुआ केवलज्ञानीका उपयोग केवलशानके शेयके प्रति रहना संभव नहीं; और यदि ऐसा हो तो केवलशानको जो अप्रतिहत कहा है, वह प्रतिहत हुआ माना जाय । यहाँ कदाचित् ऐसा समाधान करें कि 'जैसे दर्पणमें पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं, वैसे ही केवलज्ञानमें सर्व देश काल प्रतिबिम्बित होते हैं; तथा केवलज्ञानी उनमें उपयोग लगाकर उन्हें जानता है यह बात नहीं है, किन्तु सहज स्वभावसे ही वे पदार्थ प्रतिभासित हुआ करते हैं, इसलिये आहार आदिमें उपयोग रहते हुए सहज स्वभावसे प्रतिभासित ऐसे केवलशानका अस्तित्व यथार्थ है, ' तो यहाँ प्रश्न हो सकता है कि दर्पणमें प्रतिभासित पदार्थका ज्ञान दर्पणको नहीं होता, और यहाँ तो ऐसा कहा है कि केवलशानीको उन पदार्योंका ज्ञान होता है; तथा उपयोगके सिवाय आत्माका ऐसा कौनसा दूसरा स्वरूप है कि जब आहार आदिमें उपयोग रहता हो, तब उससे केवलशानमें प्रतिभासित होने योग्य शैयको आत्मा जान सके? यदि सर्व देश काल आदिका शान जिस केवलीको हो उस केवलीको 'सिद्ध' मानें तो यह संभव माना जा सकता है, क्योंकि उसे योगधारीपना नहीं कहा है। किन्तु इसमें भी यह समझना चाहिये कि फिर भी योगधारीकी अपेक्षासे सिद्धमें वैसे केवलज्ञानकी मान्यता हो तो योगरहितपना होनेसे उसमें सर्व देश काल आदिका ज्ञान संभव हो सकता है इतना प्रतिपादन करनेके लिये ही यह लिखा है, किन्तु सिदको वैसा ज्ञान होता ही है, इस अर्थको प्रतिपादन करनेके लिये नहीं लिखा । यद्यपि जिनागमके रूदिअर्थके अनुसार देखनेसे तो 'देहधारी केवली' और 'सिद्ध में केवलज्ञानका भेद नहीं होता-दोनोंको ही सर्व देश काल आदिका सम्पूर्ण शन होता है, यह रूदि-अर्थ है; परन्तु दूसरी अपेक्षासे जिनागम देखनेसे कुछ मिन ही मालूम परता है । जिनागममें निम्न प्रकारसे पाठ देखनेमें आता है: " केवलज्ञान दो प्रकारका कहा है-सयोगीभवस्थ केवलशान और अयोगीभवस्थ केवलज्ञान । सयोगी केवलशान दो प्रकारका कहा है-प्रथम समय अर्थात् उत्पन्न होनेके समयका सयोगी-केवलज्ञान, और अप्रथम समय अर्थात् अयोगी होनेके प्रवेश समयके पहिलेका केवलज्ञान । इसी तरह अयोगीभवस्थ केवलज्ञान भी दो प्रकारका कहा है-प्रथम समयका केवलज्ञान और अप्रथम अर्थात् सिद्ध होने के पहिलेके अन्तिम समयका केवलशान"।' (ख) केवलशान यदि सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका शायक ठहरे तो सब वस्तुएँ नियत मर्यादामें आ जाँय-उनकी अनंतता सिद्ध न हो । क्योंकि उनका अनादि अनंतपना समझमें नहीं आता; अर्थात् केवलशानमें उनका किस रीतिसे प्रतिभास हो सकता है ? उसका विचार बराबर ठीक ठीक नहीं बैठता । केवलज्ञानकी व्याख्या . इसलिये जगत्के शानका लक्ष छोड़कर जो शुद्ध आत्मज्ञान है-सब प्रकारके रागद्वेषका अभाव होनेपर जो अत्यंत शुद्ध शान-स्थिति प्रकट हो सकती है वही केवलशान है। उसे बारम्बार जिनागममें जो जगत्के ज्ञानरूपसे कहा है, सो उसका यही हेतु है जिससे इस माहात्म्यसे बाबदृष्टिजीव पुरुषार्थमें प्रवृत्ति करें। अतएव समकित देशचारित्र है-एकदेशसे केवलशान है । समकितदृष्टि जीवको केवलशान कहा जाता है। उसे वर्तमानमें भान हुआ है। इसलिये देश-केवलशान कहा जाता है; बाकी तो आत्माका भान होना ही केवलशान है। वह इस तरह कहा जाता है।-समकितदृष्टिको जब आत्माका भान हो तब उसे केवलज्ञानका भान प्रकट हुआ; और जब उसका भान प्रकट हो गया तो केवलशान अवश्य होना चाहिये इस अपेक्षासे समकितदृष्टिको केवलशान कहा है। समकितीको केवलशानकी इच्छा नहीं । १५९८-४९२,५-२९. २६१३-४९८-२९. ३५९.-४८७,८-२९. ४६४३-५५६,७-२९,
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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