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________________ कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न गममें न भी हो तो भी जो शब्द उपर कहे है वे आगम ही है-जिनागम ही है। ये शब्द राग, द्वेष और अज्ञान इन तीनों कारणोसे रहित प्रकटरूपसे लिखे गये है, इसलिए सेवनीय है।" इस कालमें मोक्ष (४) प्रभा-क्या इस कालमें मोक्ष हो सकता है । उत्तर:-इस कालमै सर्वथा मुक्तपना न हो, यह एकान्त कहना योग्य नहीं। अशरीरीभावरूपसे सिदपना है, और वह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं-ऐसा कहें तो यह यह कहने के तुल्य है कि हम ही स्वयं मौजूद नहीं।' राजचन्द्र दूसरी जगह लिखते है-'हे परमात्मन् ! हम तो ऐसा मानते हैं कि इस कालमें भी जीवको मोक्ष हो सकता है। फिर भी जैसा कि जैनग्रंथों में कहीं कहीं प्रतिपादन किया गया है कि इस कालमें मोक्ष नहीं होता, तो इस प्रतिपादनको इस क्षेत्रमें तू अपने ही पास रख, और हमें मोक्ष देनेकी अपेक्षा, हम सत्पुरुषके ही चरणका ध्यान करें, और उसीके समीप रहे-ऐसा योग प्रदान कर ।' हे पुरुषपुराण ! हम तुममें और सत्पुरुषमें कोई भी भेद नहीं समझते । तेरी अपेक्षा हमें तो सत्पुरुष ही विशेष मालूम होता है। क्योंकि तू भी उसीके आधीन रहता है, और हम सत्पुरुषको पहिचाने बिना तुझे नहीं पहिचान सके । तेरी यह दुर्घटता हमें सत्पुरुषके प्रति प्रेम उत्पन्न करती है। क्योंकि तुसे वश करनेपर भी वे उन्मत्त नहीं होते; और वे तुझसे भी अधिक सरल है। इसलिये अब तू जैसा कहे वैसा करें। हे नाथ! तू बुरा न मानना कि हम तुझसे भी सत्पुरुषका ही अधिक स्तवन करते हैं। समस्त जगत् तेरा ही स्तवन करता है तो फिर हम भी तेरे ही सामने बैठे रहेंगे, फिर तुझे स्तवनकी कहाँ चाहना है, और उसमें तेरा अपमान भी कहाँ हुआ'?" साधुको पत्रव्यवहारकी आशा .. (५) प्रभा-क्या सर्वेविरति साधुको पत्र-व्यवहार करनेकी जिनागममें आशा है! उत्तर:-प्रायः जिनागममें सर्वविरति साधुको पत्र-समाचार आदि लिखनेकी आशा नहीं है, और यदि वैसी सर्वविरति भूमिकामे रहकर भी साधु पत्र-समाचार लिखना चाहे तो वह अतिचार समक्षा जाय । इस तरह साधारणतया शास्त्रका उपदेश है, और वह मुख्य मार्ग तो योग्य ही मालूम होता है, फिर भी जिनागमकी रचना पूर्वापर अविरुद्ध मालूम होती है, और उस अविरोधकी रखाके लिये पत्र-समाचार आदि लिखनेकी आशा भी किसी प्रकारसे जिनागममें है। जिनभगवान्की जो जो आशायें हैं, वे सब आशायें, जिस तरह सर्व प्राणी अर्थात् जिनकी आत्माके कल्याणके लिए कुछ इच्छा है, उन सबको, वह कल्याण प्राप्त हो सके, और जिससे वह कल्याण वृद्धिंगत हो, तथा जिस तरह उस कल्याणकी रक्षा की जा सके, उस तरह की गई है। यदि जिनागममें कोई ऐसी आशा कही हो कि वह आशा अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके संयोगसे न पल सकती हुई आत्माको बाधक होती हो तो यहाँ उस आशाको गौण करके उसका निषेध करके-भीतीर्थकरने दूसरी माशा की है। उदाहरण के लिये मैं सब प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होता हूँ' इस तरह पथक्खाण होनेपर . ३२३-३११, २, ३-२५० ३ ३३७-३२३-२५. ३ तुलना करो-वीरशव सम्प्रदायक संस्थापक महात्मा बसवेश्वर लिखते है:-माकी पदवी मुझे नहीं चाहिये । विष्णुकी पदवी भी मैं नहीं चाहता। शिवकी पदवी प्रात करनेकी भी इच्छा मुझे नहीं है। और किसी दूसरी पदवीको मैं नहीं चाहता । देव ! मुझे केवल यही पदवी दीजिये कि मैं तुम्हारे सच्चे सेवकोंका बड़प्पन समझ सकूँ-बसवेश्वरके वचन, हिन्दी अनुवाद पृ. १३, बैंगओर १९३९. ४ १०४-२३८,-२४.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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