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________________ पत्र ५८८] विविध पत्र मादि संग्रह-२९वाँ वर्ष पदार्थोंको देखनेसे दोनों ही समानरूपसे जानते हैं, और प्रस्तुत प्रसंगमें तो जाननेमें भेद पाया जाता है, उस भेदके होनेका क्या कारण है, यह मुख्यरूपसे विचार करना योग्य है।' उत्तर:-मनुष्य आदिको जो जगत्वासी जीव जानते हैं, वे दैहिक स्वरूपसे तथा दैहिक चेष्टासे ही जानते हैं । एक दूसरेकी मुदामें आकारमें और इन्द्रियोंमें जो भेद है, उसे चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जगत्वासी जीव जान सकते हैं, और उन जीवोंके कितने ही अभिप्रायोंको भी जगत्वासी जीव अनुमानसे जान सकते हैं, क्योंकि वह उनके अनुभवका विषय है। परन्तु जो ज्ञानदशा अथवा वीतराग दशा है, वह मुख्यरूपसे दैहिक स्वरूप तथा दैहिक चेष्टाका विषय नहीं है-वह अंतरात्माका ही गुण है । और अंतरात्मभाव बाह्य जीवोंके अनुभवका विषय न होनेसे, तथा जिन्हें तथारूप अनुमान भी हो ऐसे जगत्वासी जीवोंको प्रायः करके वैसा संस्कार न होनेसे वे, ज्ञानी अथवा वीतरागको नहीं पहिचान सकते । कोई कोई जीव ही सत्समागमके संयोगसे, सहज शुभ कर्मके उदयसे और तथारूप कुछ संस्कार प्राप्त कर, ज्ञानी अथवा वीतरागको यथाशक्ति पहिचान सकते हैं। फिर भी सच्ची सच्ची पहिचान तो दृढ़ मुमुक्षुताके प्रगट होनेपर, तथारूप सत्समागमसे प्राप्त उपदेशका अवधारण करनेपर, और अन्तरात्म-वृत्ति परिणमित होनेपर ही जीव, ज्ञानी अथवा वीतरागको पहिचान सकता है। जगत्वासी अर्थात् जो जगत्-दृष्टि जीव हैं, उनकी दृष्टिसे ज्ञानी अथवा वीतरागकी सच्ची सच्ची पहिचान कहाँसे हो सकती है ? जैसे अन्धकारमें पड़े हुए पदार्थको मनुष्य-चक्षु नहीं देख सकती; उसी तरह देहमें रहनेवाले ज्ञानी अथवा वीतरागको जगत्-दृष्टि जीव नहीं पहिचान सकता। जैसे अंधकारमें पड़े हुए पदार्थको देखनेके लिये प्रकाशकी अपेक्षा रहती है, उसी तरह जगत्-दृष्टि जीवोंको ज्ञानी अथवा वीतरागकी पहिचानके लिये विशेष शुभ संस्कार और सत्समागमकी अपेक्षा होना योग्य है । यदि वह संयोग प्राप्त न हो, तो जैसे अंधकारमें पड़ा हुआ पदार्थ और अंधकार, दोनों ही एकरूप भासित होते हैं-उनमें भेद नहीं भासित होता-उसी तरह तथारूप योगके बिना ज्ञानी अथवा अन्य संसारी जीवोंकी एकाकारता भासित होती है-उनमें देह आदि चेष्टासे प्रायः करके भेद भासित नहीं होता । जो देहधारी सर्व अज्ञान और सर्व कषायरहित हो गया है, उस देहधारी महात्माको त्रिकाल परमभक्तिसे नमस्कार हो! नमस्कार हो ! वह महात्मा जहाँ रहता है, उस देहको, भूमिको, घरको, मार्गको, आसन आदि सबको नमस्कार हो ! नमस्कार हो! ५८८ बम्बई, चैत्र सुदी १ रवि. १९५२ (१) प्रारब्धोदयसे जिस प्रकारका व्यवहार प्रसंगमें रहता है, उसके प्रति दृष्टि रखते हुए जैसे पत्र आदि लिखनेमें अल्पतासे प्रवृत्ति होती है, वैसा अधिक योग्य है—यह अभिप्राय प्रायः करके रहा करता है। • आत्माके वास्तविकरूपसे उपकारभूत ऐसे उपदेश करनेमें ज्ञानी-पुरुष अल्पभावसे बर्ताव न करें, ऐसा प्रायः करके होना संभव है। फिर भी निन्न दो कारणोंद्वारा ज्ञानी-पुरुष भी उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करते हैं:
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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