SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ થ૮૨ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५८५, ५८६, ५८७ सर्वज्ञदेव. निग्रंथ गुरु. जिनाज्ञामूल धर्म. सर्वज्ञदेव. निर्मथ गुरु. सिद्धांतमूल धर्म. सर्वज्ञका स्वरूप. निर्मथका स्वरूप. धर्मका स्वरूप. सम्यक क्रियावाद. ) . प्रदेश. समय. परमाणु. ॐ नमः द्रव्य. ) गुण.. पर्याय. ) जड़. चेतन. ५८६ बम्बई, फाल्गुन सुदी ११ रवि. १९५२ श्री सद्गुरु प्रसाद यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होनेके पहिले ही जिन जीवोंको उपदेशकपना रहता हो उन जीवोंको, जिस प्रकारसे वैराग्य उपशम और भक्तिका लक्ष हो, उस प्रकारसे समागममें आये हुए जीवोंको उपदेश देना योग्य है और जिस तरह उन्हें नाना प्रकारके असद् आग्रहका तथा सर्वथा वेष व्यवहार आदिका अभिनिवेश कम हो, उस प्रकारसे उपदेश फलीभूत हो, वैसे आत्मार्थ विचार कर कहना योग्य है । क्रम क्रमसे वे जीव जिससे यथार्थ मार्गके सन्मुख हों, ऐसा यथाशक्ति उपदेश करना चाहिये । ५८७ बम्बई, फाल्गुन वदी ३ सोम. १९५२ देहधारी होनेपर भी जो निरावरण ज्ञानसहित रहते हैं, ऐसे महापुरुषोंको त्रिकाल नमस्कार हो. देहधारी होनेपर भी परम ज्ञानी-पुरुषमें सर्व कषायका अभाव होना संभव है, यह जो हमने लिखा है, सो उस प्रसंगमें अभाव शब्दका अर्थ क्षय समझकर ही लिखा है। प्रश्नः-जगत्वासी जीवको राग-द्वेष नाश हो जानेकी खबर नहीं पड़ती । और जो महान् पुरुष हैं वे जान लेते ह कि इस महात्मा पुरुषमें राग-द्वेषका अभाव अथवा उपशम रहता है-ऐसा लिखकर आपने शंका की है कि जैसे महात्मा पुरुषको ज्ञानी-पुरुष अथवा दृढ़ मुमुक्षु जीव जान लेते हैं, उसी तरह जगत्के जीव भी क्यों नहीं जानते ! उदाहरणके लिये मनुष्य आदि प्राणियोंको देखकर जैसे जगत्वासी जीव जानते हैं कि ये मनुष्य आदि हैं, उसी तरह महात्मा पुरुष भी मनुष्य आदिको जानते हैं। इन
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy