SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७८ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ५७३, ५७४, ५७५ ‘बम्बई, पौष वदी १९५२ योग असंख जे जिन कह्या, घटमांहि रिद्धि दाखी रे। नवपद तेमज जाणजो, आतमराम छे साखी रे॥ ५७३ श्रीश्रीपालरास. ५७४ गृह आदि प्रवृत्तिके योगसे उपयोगका विशेष चंचल रहना संभव है, ऐसा जानकर परम पुरुष सर्वसंग-परित्यागका उपदेश करते हुए। ५७५ बम्बई, पौष वदी २, १९५२ सब प्रकारके भयके निवास स्थानरूप इस संसारमें मात्र एक वैराग्य ही अभय है. महान् मुनियोंको भी जो वैराग्य-दशा प्राप्त होनी दुर्लभ है, वह वैराग्य-दशा तो प्रायः जिन्हें गृहवासमें ही रहती थी, ऐसे श्रीमहावीर ऋषभ आदि पुरुष भी त्यागको ग्रहण करके घर छोड़कर चले गये, यही त्यागकी उत्कृष्टता बताई गई है। जबतक गृहस्थ आदि व्यवहार रहे तबतक आत्मज्ञान न हो, अथवा जिसे आत्मज्ञान हो उसे गृहस्थ आदि व्यवहार न हो, ऐसा नियम नहीं है । वैसा होनेपर भी ज्ञानीको भी परम पुरुषोंने व्यवहारके त्यागका उपदेश किया है; क्योंकि त्याग आत्म-ऐश्वर्यको स्पष्ट व्यक्त करता है । उससे और लोकको उपकारभूत होनेके कारण त्यागको अकर्तव्य-लक्षसे करना चाहिये, इसमें सन्देह नहीं है। निजस्वरूपमें स्थिति होनेको परमार्थ संयम कहा है। उस संयमके कारणभूत ऐसे अन्य निमितोंको ग्रहण करनेको व्यवहार संयम कहा है। किसी भी ज्ञानी-पुरुपने उस संयमका निषेध नहीं किया । किन्तु परमार्थकी उपेक्षा (बिना लक्षके ) से जो व्यवहार संयममें ही परमार्थ संयमकी मान्यता रक्खे, उसका अभिनिवेश दूर करनेके ही लिए उसको व्यवहार संयमका निषेध किया है। किन्तु व्यवहार संयममें कुछ भी परमार्थका निमित्त नहीं है-ऐसा ज्ञानी-पुरुषोंने नहीं कहा। परमार्थके कारणभूत व्यवहार संयमको भी परमार्थ संयम कहा है। १ श्रीपालरासमें निम्न दो पद्य इस तरह दिये हुए हैं अष्ट सकल समृद्धिनी, घटमांहि ऋद्धि दाखी रे । तिम नवपद ऋद्धि जाणजो, आतमयम छ साखी रे ॥ योग असंख्य छे जिन कहा नवपद मुख्य ते जाणो रे । एह तणे अवलंबने आतमध्यान प्रमाणो रे। अर्थ:-जिस तरह अणिमा, महिमा आदि आठ सिद्धियोंकी सम्पूर्णता घटमें दिखाई गई है, उसी तरह नवपदकी ऋद्धिको भी घटमें ही समझना चाहिये-इसकी आत्मा साक्षी है ॥ श्रीजिनभगवानने जो असंख्यात योग कहे हैं, उन सबमें इस नवपदको मुख्य समझना चाहिये । अतएव इस नवपदके आलंबनसे जो आत्म-ध्यान करना है, वही प्रमाण है। अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy